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________________ 63 अनेकान्तवाद प्रवेश, अनेकान्तजयपताका, दिङ् नागकृतं न्यायप्रवेश सूत्र टीका, न्यायविनिश्चय, न्यायावतार टीका, लोकतत्वनिर्णय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, सर्वज्ञसिद्धिप्रकरण आदि न्याय-दर्शन के मौलिक एवं टीका ग्रन्थ । योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक, योगविंशिका आदि योगशास्त्र के ग्रन्थ । उपदेशपद, पञ्चाशक आदि प्रकरण ग्रन्थ और समराइच्चकहा आदि काव्य प्राकृत भाषा में है। 2. सिद्धर्षिसूरि--समय 10वीं शती । निर्वृत्तिकुलीय श्री दुर्गस्वामी के शिष्य । दुर्गस्वामी का स्वर्गवास भिन्नमाल में हुआ था। दीक्षा दाता गर्गस्वामी । आगम, न्याय-दर्शन और सिद्धान्तों के मूर्धन्य विद्वान् । निम्न रचनायें प्राप्त हैं। उपमितिभवप्रपञ्चकथा र.सं.962 भिन्नमाल, चन्द्रकेवली चरित्र र.सं.974, उपदेशमाला वृहदवृत्ति एवं लघुवृत्ति, न्यायावतार टीका । उपमितिमवप्रपञ्च कथा एक विशाल एवं श्रेष्ठतम महारूपक ग्रन्थ है। यह समस्त भारतीय भाषाओं में ही नहीं, 3 व-साहित्य में प्राचीनतम और मौलिक रूपक उपन्यास है। 3. जिनेश्वरसूरि--समय लगभग 1050 से 1110 । मध्यदेश निवासी कृष्ण के पुत्र । दीक्षा से पूर्व नाम श्रीधर । धारानगरी में दीक्षा । गरु वर्धमानमूरि। खरतरगच्छ के संस्थापक प्रथम आचार्य । सं. 1066-1078 के मध्य में अणहिलपुरपत्तन में महाराजा दुर्लभराज की अध्यक्षता में चैत्यवासी सूराचार्य प्रति प्रमख आचार्यों के साथ शास्त्रार्थ। शास्त्रार्थ म विजय और खरतर विरुद प्राप्ति। काय क्षत्र राजस्थान एवं गुजरात। प्रमख रचनायें प्रमालक्ष्म स्वोपज्ञ टीका सह र. सं 1080 जालोर, अष्टक प्रकरण टीका सं. 1080 जालोर, कथाकोष प्रकरण स्वोपज्ञ टीका सह र. सं. 1108 डीडवाणा, निर्वाणलीलावती कथा (अप्राप्त) आदि अन्य 7 ग्रन्थ प्राकृत भाषा में हैं। प्रमालक्ष्म जैन दर्शन प्रतिपादक आद्यग्रन्थ है । 4. बुद्धिसागरसूरि---पूर्वोक्त जिनेश्वरसूरि के लघुभ्राता। दीक्षा-पूर्व नाम श्रीपति । प्रमुख रचना है पञ्चग्रन्थी व्याकरण अपरनाम बुद्धिसागर व्याकरण र. सं. 1080 जालौर । यह श्वेताम्बर समाज का सर्वप्रथम एवं मौलिक व्याकरण ग्रन्थ है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी इस व्याकरण का अपने व्याकरण सिद्धहेमशब्दानुशासन और टीका ग्रन्थों में उपयोग किया है। वर्द्धमानसरि रचित मनोरमा चरित्र प्रशस्ति (र. सं. 1140) के अनुसार बुद्धिसागरसूरि ने छन्दः शास्त्र, निघण्टु (कोष), काव्य, नाटक, कथा, प्रबन्ध आदि अनेक विषयों के ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु वे सब ग्रन्थ आज अप्राप्त हैं। 5. जिनवल्लभसूरि---समय लगभग 1090 से 1167। खरतरगच्छ । मूलतः कर्चपुरगच्छीय जिनेश्वरसूरि के शिष्य । नवांगटीकाकार अभयदेवसूरि के पास श्रताम्यास और उपसम्पदा। चित्तौड में देवभद्राचार्य द्वारा 1167 आषाढ में आचार्य पद प्रदान कर "अभयदेवसरि के पटट पर स्थापन । 1167 कार्तिक मास, चित्तौड में ही स्वर्गवास । कार्यक्षेत्र चित्तौड आदि राजस्थान, गुजरात और पंजाब । आगम-सिद्धान्त, साहित्यशास्त्र और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान् । प्रमुख रचनायें हैं:-- 1. विशेष परिचय के लिये लेखक की 'वल्लभ-भारती' देखें। विशेष परिचय के लिये देखें, वल्लभ-भारती।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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