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संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार: 2
- म. विनयसागर, साहित्य महोपाध्याय
भारतीय संस्कृत-साहित्य के संवर्धन एवं संरक्षण में जैन श्रमण परम्परा ने अभूतपूर्व कार्य किया है । जैन श्रमण सार्वदेशीय विद्वान् एवं भाषाविद् होते हैं । यह श्रमण-यतिवर्ग अपने धर्म - आचार परम्परा के अनुसार सर्वदा विचरणशील रहा करता है । पादभ्रमण करता हुआ एक स्थान से दूसरे स्थान, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश अर्थात सारे भारत में प्रवास करता रहता है । इस वर्ग के लिये एक प्रदेश विशेष का बन्धन नहीं होता है । प्रवासकाल में इन श्रमणों-मुनियों के मुख्यतया दो कार्य होते हैं:- 1. अध्ययन अध्यापन के साथ स्वतन्त्र लेखन, ग्रन्थनिर्माण और प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करना । 2. लोकभाषा में धर्म-प्रचार करना, उपदेश देकर शास्त्र लिखवाना, ज्ञान भण्डार स्थापित करवाना, मन्दिर मूर्तियों का निर्माण, प्रतिष्ठा, प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाना और संघ के साथ तीर्थयात्रा करना । इन कार्य-कलापों के द्वारा इस वर्ग ने सरस्वती की उपासना के साथ-साथ भारतीय स्थापत्य कला, मूर्तिकला, चित्रकला का भी संवर्धन और रक्षण किया है, जो आज भी प्रत्यक्ष है ।
इस राजस्थान प्रदेश - मरुधरा ने ऐसे सहस्रों नर-रत्न श्रमणों को पैदा किया है जिन्होंने अपने कृतित्व के माध्यम से इस क्षरदेह को अक्षरत्व- श्रमरत्व प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है। राजस्थान में उत्पन्न हुए जैन श्वेताम्बर संस्कृत - साहित्यकारों का एवं राजस्थान में विचरण करते हुये श्रमण लेखकों का यदि परिचय व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ लिखा जाय तो कई ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं, जो इस निबन्ध में संभव नहीं है । अतएव निबन्ध को दो विभागों में विभक्त किया जा रहा है- 1. राजस्थान के जैन संस्कृत-साहित्यकार, और 2. राजस्थान में रचित संस्कृत-साहित्य की सूची ।
1. राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार
अन्तः साक्ष्य प्रमाणों के द्वारा अथवा उनके द्वारा रचित ग्रन्थों की भाषा के आलोक में जिनकी जन्मभूमि निवास या साहित्यिक कार्यक्षेत्र राजस्थान प्रदेश निश्चित है और जिन्होंने देववाणी में रचनायें की हैं उनमें से प्रमुख प्रमुख कतिपय साहित्यकारों का सामान्य परिचय इस विभाग में दे रहा हूं ।
हरिभद्रसूरि1 रे -- समय 757 से 857 चित्रकूट (चित्तौड ) समर्थ विद्वान् एवं राजपुरोहित । जाति ब्राह्मण । साध्वी याकिनी महत्तरा से प्रतिबोधित होकर जिनदत्तसूरि के पास दीक्षा । भवविरहांक विशेषण या उपनाम । महान् सिद्धान्तकार, दार्शनिक, विचारक, महाकवि एवं सर्वश्रेष्ठ टीकाकार । श्वेताम्बर परम्परा इनको आप्तपुरुष और इनके वचनों को आप्तवचनों की कोटि में स्थान देती आई है । परम्परानुसार इनके द्वारा रचित 1444 ग्रन्थ माने जाते हैं । वर्तमान में प्राप्त ग्रन्थों में से कतिपय विशिष्ट ग्रन्थ निम्न हैं:--
अनुयोगद्वार सूत्र टीका, आवश्यक सूत्र वृहद्वृत्ति, आवश्यक निर्युक्ति टीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र टोका, जीवाभिगम सूत्र लघुवृत्ति, तत्वार्थसूत्र टीका, दशवैकालिक सूत्र टीका, नन्दी सूत्र टीका, पिण्डनिर्युक्ति टीका, प्रज्ञापना सूत्र प्रदेशव्याख्या, ललितविस्तारा - चैत्थवन्दन सूत्र वृत्ति आदि आगमिक टीका ग्रन्थ ।