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बौद्ध आचार्य धर्मदास के विदग्धमुखमण्डन पर जिनप्रभसूरि ने एक व्याख्या लिखी । खरतर-गच्छीय जिनराजसरि ने विक्रम की सतरहवीं शती में नषध-चरित पर टीका विक्रम की पन्द्रहवीं शती में वैराट के अंचल-गन्छीय श्रावक वाडव ने कुमार-संभव, मेघदूत, रघुवंश, माघ आदि काव्यों पर अवचूरि विधा की व्याख्याएं निर्मित की।
सिंहावलोकन
राजस्थान में संस्कृत की सरिता प्रवाहित हुई, उसमें जैन आचार्य आदि-स्रोत रहे हैं। ईसा की सातवीं शती में महाकवि माघ (भीनमाल प्रदेश) अपनी काव्य-शक्ति से राजस्थान की मरुधरा को अभिषिक्त कर रहे थे तो दूसरी ओर हरिभद्रसूरि (चित्तौड) अपनी बहुमुखी प्रतिभा से मरुधरा के कण-कण को प्राणवान बना रहे थे। इसके उत्तरकाल में भी जैन लेखकों की लेखनी सभी दिशाओं में अनवरत चली। वह आज भी गतिशील है। वर्तमान शती में राजस्थान में विहार करने वाले जैन आचार्यों, साधु-साध्वियों और लेखकों ने अनेक ग्रन्थों, काव्यों, और महाकाव्यों की रचना की है। संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्तियां भी प्रचलित है। प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश आज प्रचलित भाषाएं नहीं हैं फिर भी ये बहत समृद्ध भाषाएं हैं। वर्तमान की भाषा का प्रयोग करते हुए भी इनका मूल्य विस्मृत न करनाजैन परम्परा का यह चिरन्तन-सूत्र आज भी उसकी स्मृति में है। संस्कृत के विकास और उसकी प्रवृत्ति के पीछे भी वह सर्वत्र प्राणवान् रहा है।