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चक्ति दुर्लभ मानी जाती थी। राजस्थान के जैन कवियों ने केवल काव्यों की ही रचना नहीं की, उनमें कुछ प्रयोग भी किए। उदाहरण के लिए महोपाध्याय समयसुन्दर की अष्टलक्षी, जिनप्रभसूरि के याश्रय काव्य और उपाध्याय मेघविजय के सप्तसन्धान काव्य को प्रस्तुत किया बा सकता है।
अष्टलक्षी वि. सं. 1649 की रचना है। उसमें 'राजा नो ददते सौख्यम्' इन आठ अक्षरों के आठ लाख अर्थ किए गए हैं।
महाकवि धनंजय (ग्यारहवीं शती) का द्विसन्धान काव्य तथा आचार्य हेमचन्द्र का दयाश्रय काव्य प्रतिष्ठित हो चुका था। विक्रम की चौदहवीं शती में जिनप्रभसरि ने श्रेणिक ड्याश्रय काव्य लिखा। उसमें कातन्त्र व्याकरण की दुर्गसिंह कृत वृत्ति के उदाहरण और ममधपति श्रेणिक का जीवन चरित--दोनों एक साथ चलते हैं ।
विक्रम की अठारहवीं शती में उपाध्याय मेघविजय ने सप्तसंधान काव्य का निर्माण किया। उस में ऋषभ, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि, पाव और महावीर इन पांच तीर्थकरों तथा राम और कृष्ण के चरित निबद्ध हैं।
विक्रम की तेरहवीं शती में सोमप्रभाचार्य ने सूक्ति-मुक्तावली की रचना की । यह सुभाषित-सूक्त होने के साथ-साथ प्रांजल भाषा, प्रसाद-गुण-सम्पन्न पदावली और कलात्मक कति है। इनकी श्रृंमार-वैराग्य-तरंगिणी भी एक महत्वपूर्ण कृति है।
सूक्ति-मुक्तावली का दूसरा नाम सिन्दूरप्रकर है। इस पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई। इसका अनुसरण कर कर्पूर प्रकर, कस्तूरी प्रकर, हिंगुल प्रकर आदि अनेक सूक्ति-ग्रन्थों का सृजन हुआ।
विक्रम की सातवीं शती तक जैन लेखक धर्म, दर्शन, न्याय, गणित, ज्योतिष, भूगोल खगोल, जीवन-चरित और कथा मुख्यतः इन विषयों पर ही लिखते रहे।
विक्रम की आठवीं शती से लेखन की धाराएं विकसित होने लगीं। उसमें सामाजिकराजनीतिक परिवर्तन, साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्धा और संघर्ष, लोक-संग्रह के प्रति झकाव, जन शासन के अस्तित्व की सुरक्षा, शक्ति-प्रयोग, शक्ति-साधना, चमत्कार-प्रदर्शन, जनता को आकर्षित करने का प्रयत्न, बाहयाचार पर अतिरिक्त बल प्रादि अनेक कारण बने।
बौद्ध कवि अश्वघोष का बुद्धचरित ख्याति बहत पा चका था । महाकवि कालिदास, माघ और भारवि के काव्य प्रसिद्धि के शिखर पर थे। उस समय जैन कवियों में भी संस्कृतभाषा में काव्य लिखने की मनोवृत्ति विकसित हुई। राजस्थान के जैन लेखक भी इस प्रवृत्ति में पीछे नहीं रहे । महाकाव्यों की श्रृंखला में भी अनेक काव्यों की रचना हुई उनमें भरत-वाहबलि-महाकाव्य का उल्लेख अनिवार्य है।
जैनेतर ग्रन्थों पर टीकाएं
जैन आचार्यों और विद्वानों को उदारता का दष्टिकोण विरासत में प्राप्त था। उन्होंने उसका उपयोग साहित्य की दिशा में भी किया। जैन लेखकों ने बौद्ध और वैदिक साहित्य प अनेक व्याख्याएं लिखीं। राजस्थान के जैन लेखक इसमें अग्रणी रहे हैं । हरिभद्रसरि बौद्ध विद्वान दिङनाग (ईसा की पांचवीं शती) के न्याय-प्रवेश पर टिका लिखी। पाव दे गणि (अपर नाम श्रीचन्द्रसूरि) ने विक्रम की बारहवीं शती में न्याय प्रवेश पर पंजिका लिखी