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ज्योतिष
विक्रम की आठवीं शती से जैन मुनियों और यतियों ने ज्योतिष के ग्रन्थ लिखने शुरू किए। यह क्रम 19 वीं शती तक चला। नरचन्द्रसरि ने वि. सं. 1280 में ज्यो (नारचन्द्र ज्योतिष) नामक ग्रन्थ की रचना की ।
उपाध्याय नरचन्द्र ने विक्रम की चौदहवीं शती में बेडा जातकवृत्ति, प्रश्नशतक, प्रश्न चतुर्विंशतिका आदि अनेक ग्रन्थ लिखे । डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने इनके ग्रन्थों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है--'बेडा जातकवृत्ति में लग्न और चन्द्रमा से ही समस्त फलों का विचार किया गया है । यह जातक-ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है । प्रश्नचतुवशितिका के प्रारम्भ में ज्योतिष का महत्वपूर्ण गणित लिखा है । ग्रन्थ अत्यन्त गूढ और रहस्यपूर्ण है ।।
उपाध्याय मेघविजय ने विक्रमी के अठारहवीं शती के पर्वार्ध में वर्ष प्रबोध, रमलशास्त्र, हस्त-संजीवन आदि अनेक ग्रन्थ लिखे। डॉ. नेमिचद्र शास्त्री के अनुसार इनके फलित ग्रन्थों को देखने से संहिता और मद्रिक शास्त्र से बंधी प्रकाण्ड विद्वत्ता का पता सहज में लग जाता
मध्य युग में जैन उपाश्रय शिक्षा, चिकित्सा और ज्योतिष के केन्द्र बन गए थे। जैसेजैसे जन-सम्पर्क बढा वैसे-वैसे लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियां और तद्विषयक साहित्य की मात्रा बढी।
स्तोत्र
समूचा उत्तर भारत भक्ति की लहर से आप्लावित हो रहा था। ईश्वर और गुरु की स्तुति ही धर्म की प्रधान अंग बन रही थी। जैन धर्म भी उस धारा से अप्रभावित नहीं था। इन बारह सौ वर्षों में विपुल मात्रा में स्तोत्र रचे गए। स्तोत्र के पाठ की प्रवृत्ति भी विकसित की गई। संस्कृत नहीं जानने वाले भी स्तोत्र का पाठ करते थे। इसके साथ श्रद्धा और विघ्नविलय की भावना दोनों जुडी हुई थीं।
स्तोत्रों के साथ मन्त्र-ग्रन्थों का भी निर्माण हुआ। ऐहिक सिद्धि के लिए मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र तीनों का प्रयोग होता था। फलतः तीनों विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना हुई।
यात्रा ग्रन्थ
जिनप्रभसूरि ने वि. सं. 1389 (ई. सं. 1332) म विविध-तीर्थ-कल्प नामक ग्रन्थ का निर्माण किया। तीर्थ-यात्रा में जो देखा, उसका सजीव वर्णन हआ है। उसमें भक्ति, इतिहास और चरित तीनों एक साथ मिलते हैं ।
महाकाव्य और काव्य
जन-साधारण में संस्कृत का ज्ञान नहीं था। फिर भी उसमें संस्कृत और संस्कृत के प्रति सम्मान का भाव था। कुछ लोग सहृदय थे, वे काव्य के मर्म को समझते थे। काव्य
1. भारतीय ज्योतिष, प. 102, संस्करण छठा । 2. भारतीय ज्योतिष, पृ. 109, संस्करण छठा ।