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________________ 111 इनका जन्म संवत 1530-40 के मध्य कभी हआ होगा । ये जब बालक थे तभी से इनका इन भट्टारकों से सम्पर्क स्थापित हो गया। प्रारम्भ में इन्होंने अपना समय संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के ग्रन्थों के पढने में लगाया। व्याकरण एवं छन्द शास्त्र में निपुणता प्राप्त की और फिर भटट्रारक ज्ञानभषण एवं भटटारक विजयकीर्ति के सान्निध्य में रहने लगे। श्री वी.पी. जोहरापूरकर के मतानुसार ये संवत् 1573 में भट्टारक बने।4 और वे इसी पद पर संवत् 1613 तक रहे । इस तरह शुभचन्द्र ने अपने जीवन का अधिक भाग भट्टारक पद पर रहते हुए ही व्यतीत किया। बलात्कारगण की ईडर शाखा की गद्दी पर इतने समय तक सम्भवतः ये ही भट्टारक रहे । इन्होंने अपनी प्रतिष्ठा एवं पद का खूब अच्छी तरह सदुपयोग किया और इन 40 वर्षों में राजस्थान, पंजाब, गुजरात एवं उत्तर प्रदेश में भगवान महावीर के शासन का जबरदस्त प्रभाव स्थापित किया। विद्वत्ता शुभचन्द्र शास्त्रों के पूर्ण मर्मज्ञ थे। ये षट् भाषा-कवि चक्रवर्ती कहलाते थे। छह भाषाओं में सम्भवतः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी, गजराती एवं राजस्थानी भाषायें थीं। ये विविध विद्याधर (शब्दागम, यक्त्यागम एवं परमागम) के ज्ञाता थे। पट्टावलि के अनुसार ये प्रमाणपरीक्षा, पत्र परीक्षा, पूष्प परीक्षा (?) परीक्षा-मुख, प्रमाण-निर्णय, न्यायमकरन्द न्यायकुमुदचन्द्र, न्याय विनिश्चय, श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, प्रमेयकगल मार्तण्ड, आप्तमीमांसा अष्टसहस्री, चिंतामणिमीमांसा, विवरण वाचस्पति, तत्व कौमदी आदि न्याय ग्रन्थों के जैनेन्द्र शाकटायन, एन्द्र, पाणिनी, कलाप आदि व्याकरण ग्रन्थों के, त्रैलोक्यसार गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, सुविज्ञप्ति, अध्यात्माष्ट-सहस्री (? और छन्दोलंकार आदि महाग्रन्थों के पारगामी विद्वान थे।5 साहित्यिक सेवा शुभचन्द्र ज्ञान के सागर एवं अनेक विद्याओं में पारंगत विद्वान थे। वे वक्तत्व-कला में पट तथा आकर्षक व्यक्तित्व वाले सन्त थे। इन्होंने जो साहित्य सेवा अपने जीवन में की थी वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है । अपने संघ की व्यवस्था तथा धर्मोपदेश एवं आत्मसाधना के अतिरिक्त जो भी समय इन्हें मिला उसका साहित्य-निर्माण में ही सदुपयोग किया गया। वे स्वयं ग्रन्थों का निर्माण करते, शास्त्र भण्डारों की सम्हाल करत, अपने शिष्यों से प्रतिलिपियां करवाते, तथा जगह-जगह शास्त्रागार खोलने की व्यवस्था कराते थे। वास्तव में ऐसे ही सन्तों के सद्प्रयास से भारतीय साहित्य सूरक्षित रह सका है। पाण्डवपुराण इनकी संवत् 1608 की कृति है। उस समय साहित्यिक-जगत में इनकी ख्याति चरमोत्कर्ष पर थी। समाज में इनकी कृतियां प्रिय बन चुकी थीं और उनका अत्यधिक प्रचार हो चुका था। संवत् 1608 तक जिन कृतियों को इन्होंने समाप्त कर लिया था उनमें (1) चन्द्रप्रभ चरित्र (2) श्रेणिक चरित्र (3) जीवंधर चरित्र (4) चन्दना कथा (5) अष्टान्हिका कथा (6) सद्वृत्तिशालिनी (7) तीन चौबीसी पूजा (8) सिद्धचक्र पूजा (9) सरस्वती पूजा (10) चितामणि पूजा (11) कर्मदहन पूजा (12) पार्श्वनाथ काव्य पंजिका (13) पल्यव्रतोद्यापन (14) चारित्र शुद्धिविधान (15) संशयवदन विदारण (16) अपशब्द खण्डन (17) तत्व निर्णय (18) स्वरूप संबोधन वृत्ति (19) अध्यात्म तरंगिणी (20) चितामणि प्राकृत व्याकरण (21) अंगप्रज्ञप्ति आदि के नाम उल्लेखनीय है। उक्त साहित्य भट्टारक शुभचन्द्र के कठोर परिश्रम एवं त्याग का फल है । इसके पश्चात् 4. देखिये भट्टारक सम्प्रदाय पृष्ठ संख्या 158 5. देखिये नाथूरामजी प्रेमी कृत-जैन साहित्य और इतिहास पृ.सं. 383
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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