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शाह क्रमशः महाराणा लाखा, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा और महाराणा प्रताप के समय में प्रधान एवं दीवान थे। कुम्भलगढ़ के किलेदार आसाशाह ने बालक राजकुमार उदयसिंह का गप्त रूप से पालन-पोषण कर अपने अदम्य साहस और स्वामिभक्ति का परिचय दिया था। बीकानेर के बच्छराज, कर्मचन्द्र बच्छावत, महाराव हिन्दूमल क्रमशः राव बीका, महाराजा रायसिंह एवं महाराजा रत्नसिंह के समय में दीवान थे। बीकानेर के महाराजा रायसिंह, कर्णसिंह, और सूरतसिंह ने क्रमशः जैनाचार्य जिनचन्द्रसूरि,धर्मवर्धन व ज्ञानसारजी को बड़ा सम्मान दिया। जोधपुर राज्य के प्रधान व दीवानों में भण्डारी नराजी, भण्डारी मानाजी, मूणोत नैणसी की सेवायें क्रमशः राव जोधा, मोटाराजा उदयसिंह व महाराजा जसवंतसिंह के शासनकाल में विशेष महत्त्वपूर्ण रहीं। जयपुर राज्य के जैन दीवानों की लम्बी परम्परा रही है। 1 इनमें मुख्य हैं-संघी मोहनदास, रामचन्द्र छाबड़ा, संघी हुक्मचन्द, संघी झू थाराम,श्योजीराम,अमरचन्द, राव कृपाराम पांडया, बालचन्द्र छाबड़ा, रायचन्द छाबड़ा, विजैराम तोतूका, नथमल गोलेछा पादि। इन सभी वीर मन्त्रियों ने अपने प्रभाव से न केवल जैन मन्दिरों का निर्माण या जीर्णोद्धार ही करवाया वरन् जनकल्याणकारी विभिन्न प्रवृत्तियों के विकास एवं संचालन में योग दिया और देश की रक्षा व प्रगति के लिये संघर्ष किया।
स्वतन्त्रता के बाद राजस्थान के नव निर्माण की सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रवृत्तियों में जैन धर्मावलम्बियों की महत्त्वपूर्ण
मावलाम्बया का महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। विभिन्न लोकोपकारी संस्थानों और ट्रस्टों द्वारा लोगों को यथाशक्य सहायता दी जाती है। मानव समाज में प्रचलित कुव्यसनों को मिटाकर सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देने वाली वीरवालधर्मपाल प्रवत्ति का रचनात्मक कार्यक्रम अहिंसक समाज रचना की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। व्यावहारिक शिक्षण के साथ-साथ नैतिक शिक्षण के लिये कई जैन शिक्षण संस्थायें, स्वाध्याय मंडल और छात्रावास कार्यरत हैं। जन स्वास्थ्य के सुधार की दिशा में विभिन्न क्षेत्रों में कई अस्पताल और औषधालय खोले गये हैं जहां रोगियों को निःशुल्क तथा रियायती दरों पर चिकित्सा सुविधा प्रदान की जाती है। जैन साधु और साध्विाँ वर्षा ऋतु के चार महिनों में पद-यात्रा नहीं करते हैं। इस काल में विशेषतः तप, त्याग, प्रत्याख्यान, संघ-यात्रा,तीर्थ-यात्रा, मुनि-दर्शन, उपवास, प्रायम्बिल, मासखमण, संवत्सरी, क्षमापर्व जैसे विविध उपासना प्रकारों द्वारा प्राध्यात्मिक जागति के विविध कार्यक्रम बनाये जाते हैं। इससे व्यक्तिगत जीवन निर्मल, स्वस्थ और उदार बनता है तथा सामाजिक जीवन में बंधत्व, मैत्री, वात्सल्य जैसे भावों की वृद्धि होती है।
कल मिलाकर कहा जा सकता है कि जैन धर्म की दृष्टि राजस्थान के सर्वांगीण विकास पर रही है। उसने मानव जीवन की भौतिक सफलता को ही मुख्य नहीं माना, उसका बल रहा मानव जीवन की सार्थकता और प्रात्मशुद्धि पर ।
राजस्थान का जैन साहित्य :
ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि धार्मिक भावना ने राजस्थान के साहित्य, संस्कृति और कला को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। वस्तुतः धार्मिक अनुभूति कोई संकीर्ण मनोवत्ति नहीं है। वह एक नैतिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक वृत्ति है जो मानवता के अस्तित्व के साथ जुड़ी हुई है। जब यह वृत्ति सर्जनात्मक स्तर पर रसमय बनकर मानवमन के रमों को
1. इस संबंध में पं. भंवरलाल जैन का 'जयपुर के जैन दीवान लेख पठनीय है। 'जिनवाणी' का __ 'जैन संस्कृति और राजस्थान' विशेषांक, पृष्ठ 332 से 3391