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यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि महावीर के निर्वाण के लगभग 600 वर्ष बाद जैन धर्म दो मतों में विभक्त हो गया - दिगम्बर और श्वेताम्बर । जो मत साधुओं की नग्नता का पक्षधर था और उसे ही महावीर का मूल प्राचार मानता था, वह दिगम्बर कहलाया । यह मूल संघ नाम से भी जाना जाता है और जो मत साधुओं के वस्त्र-पान का समर्थन करता था वह श्वेताम्बर कहलाया । आगे चलकर दिगम्बर सम्प्रदाय कई संघों में विभक्त हो गया। जिनमें मुख्य हैं: -- दाविड़ संघ, काष्ठ संघ और माथुर संघ । कालान्तर में शुद्धाचारी, तपस्वी दिगम्बर मुनियों की संख्या कम हो गई और एक नये भट्टारक वर्ग का उदय हुआ जिसकी साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सेवायें रही हैं । जब भट्टारकों में शिथिलाचार पनपा तो उसके विरुद्ध सत्रहवीं शती में एक नये पंथ का उदय हुआ जो तेरहपंथ कहलाया । इस पथ में टोडरमल जैसे दार्शनिक विद्वान् हुए। श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी आगे चल कर दो भागों में बंट गया - चैत्यवासी और वनवासी। चैत्यवासी उग्रविहार छोड़कर मन्दिरों में रहने लगे । कालान्तर में श्वेताम्बर सम्प्रदाय कई गच्छों में विभक्त हो गया। संख्या 84 कही जाती है। इनमें खरतरगच्छ और तपागच्छ प्रमुख हैं। कहा जाता है कि वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने गुजरात हलपुर पट्टण के राजा दुर्लभराज की सभा में सन् 1017 ई. में जब चैत्यवासियों को परास्त किया तो राजा ने उन्हें 'खरतर' नाम दिया और इस प्रकार 'खरतरगच्छ' नाम चल पड़ा । तपागच्छ के संस्थापक श्री जगतचन्द्र सूरि माने जाते हैं । सन् 1228 ई. में इन्होंने उग्रतप किया । इस उपलक्ष्य में मेवाड़ के महाराणा जैत्रसिंह ने इन्हें 'तपा' उपाधि से विभूषित किया। तब से यह गच्छ 'तपागच्छ' नाम से प्रसिद्ध हुआ । खरतरगच्छ और तपागच्छ दोनों ही मूर्ति पूजा में विश्वास करते हैं ।
चौदहवीं - पन्द्रहवीं शती में संतों ने धर्म के नाम पर पनपने वाले बाह्य श्राडम्बर का विरोध किया, इससे भगवान् की निराकार उपासना को बल मिला । श्वेताम्बर परम्परा में स्थानकवासी और तेरापंथी श्रमूर्तिपूजक हैं। ये मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते । स्थानकवासियों का संबंध गुजरात की लोंकागच्छ परम्परा से रहा है। राजस्थान में यह परम्परा शीघ्र ही फैल गयी और जालौर, सिरोही, जैतारण, नागौर, बीकानेर आदि स्थानों पर इसकी गद्दियां प्रतिष्ठापित हो गयीं । इस परम्परा में जब आडम्बर बढ़ा तब जीवराजजी, हरजी, धनाजी, पृथ्वीचन्द्र जी, मनोहरजी आदि पूज्य मुनियों ने तपत्यागमूलक सद्धर्म का प्रचार किया । स्थानकवासी परम्परा बाईस सम्प्रदाय के नाम से भी प्रसिद्ध है ।
श्वेताम्बर तेरापंथ के मूल संस्थापक आचार्य भिक्षु हैं । यह पंथ सैद्धांतिक मतभेद के कारण संवत् 1817 में स्थानकवासी परम्परा से अलग हुआ । इस पंथ के चौथे प्राचार्य, जो जयाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं, राजस्थानी के महान् साहित्यकार थे। इन्होंने तेरापंथ के लिये कुछ मर्यादायें निश्चित कर मर्यादा महोत्सव का सूत्रपात किया। नवम् श्राचार्य श्री तुलसीगणी हैं जिन्होंने अणुव्रत प्रांदोलन के माध्यम से दिशा में विशेष पहल की है।
इस पंथ के वर्तमान नैतिक जागरण की
राजस्थान में जैन धर्म के विकास और प्रसार में इन सभी जैन मतों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । जैन धर्म के विभिन्न प्राचार्यों, संतों और श्रावकों का जन साधारण के साथ ही नहीं वरन यहां के राजा-महाराजाओं के साथ भी घनिष्ठ संबंध रहा है। प्रभावशाली जैन श्रावक यहां प्रधान, दीवान, सेनापति, सलाहकार और किलेदार जैसे विशिष्ट उच्च पदों पर सैंकड़ों की संख्या में रहे हैं । 1 उदयपुर क्षेत्र के नवलखा रामदेव, नवलखा सहणपाल, कर्माशाह, भामा
1. इस संबंध में डा. देव कोठारी का 'देशी रियासतों के शासन प्रबन्ध में जैनियों का सैनिक व राजनीतिक योगदान' लेख विशेष रूप से पठनीय है। 'जिनवाणी' का 'जैन संस्कृति और राजस्थान' विशेषांक, पृ. 307 से 331।