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राजस्थान में जैन धर्म :
उपर्युक्त धार्मिक पृष्ठभूमि के समानान्तर ही प्रारम्भ से राजस्थान में जैन धर्म प्रभावी रहा है। भगवान् महावीर के जीवनकाल में ही राजस्थान के कुछ भागों में जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार का ज्ञान परवर्ती जैन साहित्य से होता है। महावीर के मामा एवं लिच्छवी गणतन्त्र के प्रमुख चेटक की ज्येष्ठ पुत्री प्रभावती सिन्धु सौवीर के शासक उदायन को ब्याई गई थी । उदायन जैनमतावलम्बी हो गया था। 'भगवती सूत्र' के अनुसार उसने अपने भाणेज केशी को राज्य देकर अन्तिम समय में श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली थी। सामान्यतः सौवीर प्रदेश के अन्तर्गत जैसलमेर और कच्छ के हिस्से भी माने जाते हैं। भीनमाल के 1276 ई. के एक अभिलेख से विदित होता है कि महावीर स्वामी स्वयं श्रीमाल नगर पधारे थे । आबूरोड़ से 8 किलोमीटर पश्चिम में मु'गस्थल से प्राप्त 1369 ईस्वी के शिलालेख से पता चलता है कि भगवान् महावीर स्वामी स्वयं अर्बुद भूमि पधारे थे, पर ये विवरण बहुत बाद के हैं, अतः इनकी सत्यता संदिग्ध है।
राजस्थान में जैनधर्म के प्रसार का सर्वाधिक ठोस प्रमाण ईसा से पूर्व 5वीं शताब्दी का बड़ली शिलालेख माना जाता है जिसमें वीर निर्वाण संवत् के 84वें वर्ष का तथा चित्तौड़ के समीप स्थित माझमिका ( माध्यमिका) का उल्लेख है । माझमिका जैन धर्म का प्राचीन केन्द्र रही है जहां जैन श्रमण संघ की माध्यमिका शाखा की स्थापना सुहस्ती के द्वितीय शिष्य प्रियग्रन्थ की थी। मौर्य युग में चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म के प्रसार के लिये कई प्रयत्न किये । अशोक केपी राजा सम्प्रति ने जैन धर्म के उन्नयन एवं विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया । कहा जाता है कि उसने राजस्थान में कई जैन मन्दिर बनवाये और वीर निर्वाण संवत् 203 में आर्य सुहस्ती के द्वारा घाणी में पद्मप्रभु की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी थी ।
विक्रम की दूसरी शती में बने मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से अति प्राचीन स्तूप और जैन मन्दिरों के ध्वंसावशेष मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि राजस्थान में उस समय जैन धर्म का अस्तित्व था । केशोरायपाटन में गुप्तकालीन एक जैन मन्दिर के अवशेष से, सिरोही क्षेत्र के बसन्तगढ़ में प्राप्त भगवान् ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा से जोधपुर क्षेत्र के प्रोसियां के महावीर मन्दिर के शिलालेख से, कोटा की समीपवर्ती जैन गुफाओं से, उदयपुर के पास स्थित आयड़ के पार्श्वनाथ मन्दिर और जैसलमेर के लोदरवा स्थित जिनेश्वरसूरि की प्रेरणा से निर्मित पार्श्वनाथ के मन्दिर से यह स्पष्ट होता है कि राजस्थान में जैन धर्म का प्रचार ही नहीं था, वरन् सभी क्षेत्रों में उसका अच्छा प्रभाव भी था।
अजमेर क्षेत्र में भी जैन धर्म का व्यापक प्रभाव रहा। पृथ्वीराज चौहान प्रथम ने बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रणथम्भौर के जैन मन्दिर पर स्वर्ण कलश चढ़ाये थे। यहां के राजा अर्णोराज के मन में श्री जिनदत्तसूरि के प्रति विशेष सम्मान का भाव था । जिनदत्त - सूरि मरुधरा के कल्पवृक्ष माने गये हैं । इनका स्वर्गवास अजमेर में हुआ। इनके निधन के उपरान्त इनकी पुण्य स्मृति में राजस्थान में स्थान-स्थान पर दादाबाड़ियों का निर्माण हुआ ।
कुमारपाल के समय में हेमचन्द्र की प्रेरणा से जैन धर्म का विशेष प्रचार हुआ। आब के जैन मन्दिर, जो अपनी स्थापत्यकला के लिये विश्व विख्यात हैं, इसी काल में बने । पन्द्रहवीं शती में निर्मित राणकपुर का जैन मन्दिर भी भव्य और दर्शनीय है। जयपुर क्षेत्रीय श्री महावीरजी श्रौर उदयपुर क्षेत्रीय श्री केसरियानाथजी के मन्दिरों ने जैन धर्म की प्रभावना में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। ये तीर्थस्थल सभी धर्मों व वर्गों के लिये श्रद्धा केन्द्र बने हुये हैं। इस क्षेत्र के मीणा और गुजर लोग भगवान महावीर और ऋषभदेव को अपना परम आराध्य मानते हैं।