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________________ छूती है, तब साहित्य और कला की सृष्टि होती है। इस बिन्दु पर पाकर धार्मिक मूल्य और कलात्मक मूल्यों में विशेष अन्तर नहीं रहता। साहित्यकार कल्पना का आश्रय अवश्य लेता है पर वह मात्र कल्पनाजीवी बनकर जीवित नहीं रह सकता। चूंकि सामान्य लोगों से वह अधिक संवेदनशील और क्रांतिद्रष्टा होता है अत: उसकी विवेक शक्ति संक्रमण काल में जनता के मनोबल को थामे रखने में विशेष सहायक बनती है और संकटकाल में सांस्कृतिक तत्वों को नष्ट होने से बचाती है। जब राष्ट्रीयता राजनीति के स्तर पर सीमित हो जाती है और उसकी सांस्कृतिक चेतना मन्द पड जाती है तब राष्ट्रीयता को सार्वजनीन नैतिक उत्कर्ष का दार्शनिक आधार संत साहित्यकार ही दे पाते हैं। वे ही राष्ट्र की आत्मा को, उसकी जीवनशक्ति को, ऊर्जा को सतेज बनाये रखने में समर्थ होते हैं। भगवान महावीर और उनके बाद के प्रभावक प्राचार्यों ने यह भमिका निभायी। मध्ययुग में जब विदेशी आक्रमणकारियों से हम राजनैतिक दृष्टि से परास्त हो गये तब भी इन संतों और प्राचार्यों ने भक्ति, धर्म और साहित्य के धरातल से सांस्कृतिक प्रांदोलन की प्रक्रिया जारी रखी। माधुनिक युग में जब अंग्रेजी शासन का दमन चक्र चला तब भी राष्ट्र के स्वतन्थ्य-भाव को इन संतो ने धार्मिक व सांस्कृतिक स्तर पर बुलंद रखा। अहिसा. सत्याग्रह, स्वदेशीपन, लोकसेवा, सहअस्तित्व जसे मूल्यों और आदर्शों के समाजीकरण में इन संतों का विशेष योगदान रहा है। राजस्थान में जो जैन साहित्य रचा गया है, वह कथ्य और शिल्प दोनों ही द ष्टियों से बहरंगी व बहुआयामी है। अब तक जो कुछ प्रकाश में आ पाया है उससे अधिक भाग अब भी पाण्ड लिपियों के रूप में विभिन्न ज्ञान भण्डारों में बन्द है। विभिन्न मतों के प्राचार्यों व संतों ने अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्र के लोगों के स्वभाव व देशकाल को ध्यान में रखकर वैविध्यपूर्ण साहित्य की रचना की है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी सभी भाषाओं में विपुल परिमाण में यह साहित्य रचा गया है। रूप और शैली की दृष्टि से विविधता होने पर भी इसकी अपील में एकोहे श्यता है। वह प्राणिमात्र को मैत्री के सूत्र में पिरोती है, समता और सहिष्णुता का संदेश देती है। स्वतन्त्रता के बाद राजस्थान के जैन साहित्य के लेखन और प्रकाशन में विशेष मोड़ पाया। रूपात्मक दृष्टि से प्राचीन व मध्ययुगीन काव्य रूपों के स्थान पर उपन्यास, कहानी जैसे नवीन रूप अपनाये गये। इस युग की एक प्रमुख प्रवृत्ति शोध एवं समीक्षात्मक ग्रंथों की उभरी। विश्वविद्यालयों में साहित्य, इतिहास, दर्शन विषयों से संबद्ध कई जैन शोध ग्रन्थ लिखे गये, तो स्वतन्त्र रूप से पाण्डुलिपियों के सूचीकरण, प्राचीन साहित्यक और दार्शनिक ग्रन्थों के सम्पादन, समीक्षण और विवेचन के रूप में शोध प्रवृत्ति का क्षेत्र विस्तृत हुआ। भगवान महावीर के 2500वें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में कई संस्थानों और व्यक्तियों द्वारा भगवान् महावीर के जीवनदर्शन और जैन धर्म-दर्शन से संबद्ध कई स्तरीय और सुगम-सुबोध पुस्तकें,पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक और स्मारिकायें प्रकाशित हुई हैं। स्थानाभाव से उन सबकी चर्चा करना यहां संभव नहीं है। राज्य सरकार के सहयोग से राजस्थान विश्वविद्यालय में और अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संघ तथा राज्य सरकार के विशेष अनुदान से उदयपुर विश्वविद्यालय में प्राकृत एवं जन विद्या विभाग की स्थापना से जैन साहित्य के अध्ययन अध्यापन एवं अन संधान को विशेष गति मिलेमी और विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से राष्ट्र की भावात्मक एकता पृष्ट होगी। यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण वर्ष के अवसर पर राज्य स्तर पर गठित समिति की साहित्यिक योजना के अन्तर्गत यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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