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________________ 114 सम्पन्न हुई थी। इसमें अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का जीवन चरित्र निबद्ध है। 'अध्यात्मकमलर्तण्ड' 250 श्लोक प्रमाण रचना है। इसमें सात तत्व एवं नौ पदार्थों का वर्णन है। लाटी संहिता चार शास्त्र है इसमें सात सर्ग हैं और 1600 के लगभग पद्यों की संख्या है। इसकी रचना 'राट नगर के जिन मन्दिर में सम्पन्न हई थी। पंचाध्यायी में पांच अध्याय होने चाहिये लेकिन च में कवि का निधन होने के कारण यह रचना पूर्ण नहीं की जा सकी। इनका समय [7वीं शताब्दी का है। 23. ब्र. कामराज ब्र. कामराज भ. सकलभूषण के प्रशिष्य एवं भ. नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य ब्र. प्रहलाद णी के शिष्य थे। इन्होंने संवत 1691 में 'जयपुराण' को मेवाड में समाप्त किया था। जिसका ल्लेख निम्न प्रकार है: राष्ट्रस्यैतत्पुराणं शकमनुजपतर्मेदपाटस्य पुर्या पश्चात्संवत्सरस्य प्ररचितपटतः पंच पंचाशतो हि। अभ्राभ्राक्षकसंवच्छरनिवियुजः (1555) फाल्गुने मासि पूणेमुख्यायामौदयायो सुकविनयिनो लालजिष्णोश्च वाक्यात् ॥ 24. पण्डित जगन्नाथ पोमराज श्रेष्ठि के पुत्र पण्डित जगन्नाथ तक्षकगढ (वर्तमान नाम टोडारायसिंह) के पहन वाले थे। ये भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। इनके भाई वादिराज भी संस्कृत के बडे पारी विद्वान थे। पं. जगन्नाथ की अब तक 6 रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं जिनमें चतुर्विशति संधान स्वोपज्ञ टीका, सुखनिधान, सुषेण चरित, नमिनरेन्द्र स्तोत्र, कर्मस्वरूप वर्णन के नाम उल्लेखनीय हैं। सभी रचनायें संस्कृत भाषा की अच्छी रचनायें हैं। 25. वादिराज ये खण्डेलवाल वंशीय श्रेष्ठि पोमराज के दूसरे पुत्र थे। ये संस्कृत के अच्छे विद्वान थे तथा राजनीति में भी पट थे। वादिराज ने अपने आपको धनंजय, आशाधर और बाणभटट का पद गरण करने वाला दूसरा बाणभट्ट लिखा है। वहां के राजा राजसिंह को दूसरा जयसिंह तथा क्षिकनगर को दूसरे अणहिलपुर की उपमा दी है। धनअजयाशाधरवाग्भटानां धत्ते पद सम्प्रति वादिराजः । खांडिल्लवंशोद्भव-पोमसूनु, जिनोक्तिपीयूषसुतृप्तगात्रः ।। वादिराज तक्षकनगर के राजा राजसिंह के महामात्य थे। राजसिंह भीमसिंह के पुत्र थे। वादिराज के चार पुत्र थे-रामचन्द्र, लालजी, नेमिदास और विमलदास। वादिराज की तीन कृतियां मिलती है एक है वाग्भटालंकार की टीका कविचन्द्रिका' दूसरी रचना ज्ञानलोचन स्तोत्र तथा तीसरी सुलोचना चरित्र है। कविचन्द्रिका को इन्होंन सवंत 1729 को दीपमालिका के दिन समाप्त की थी। कवि 18वीं शताब्दि के प्रथम चरण के विद्वान् थे।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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