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________________ 26. भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति भट्टारक जगत्कीति के शिष्य थे । संवत् 1770 की माह बुदी 11 को आमेर में इनका पट्टाभिषेक हुआ था । उस समय आमेर अपने पूर्ण वैभव पर था और महाराजा सवाई जयसिंह उसके शासक थे । ये करीब 22 वर्ष तक भट्टारक पद पर रहे। इन्होंने समयसार पर एक संस्कृत टीका ईसरदा (राज.) में संवत् 1788 में समाप्त की थी। देवेन्द्रकीति ने राजस्थान एवं विशेषतः ढूंढाड प्रदेश में विहार करके साहित्य का अच्छा प्रचार किया था । 27. मट्टारक सुरेन्द्रकीति म. भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति का जयपुर में भट्टारक गादी पर पट्टाभिषेक हुआ था । पट्टावली में पट्टाभिषेक का समय सं. 1822 तथा बुद्धिविलास में संवत् 1823 दिया हुआ है। सुरेन्द्र-कीर्ति संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। अब तक इनको निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं :-- 1. 2. अष्टान्हिका कथा पंच कल्याणक विधान पंचमास चतुर्दशी व्रतोद्यापन 3. 4. पुरन्दर - व्रतोद्यापन 5. लब्धि विधान 6. 7. 115 सम्मेदशिखर पूजा प्रतापकाव्य 28. आचार्य ज्ञानसागर वर्तमान शताब्दि में संस्कृत भाषा में महाकाव्यों के रचना की परम्परा को जीवित रखने वाले विद्वानों में जैनाचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । वें 50 वर्षों से भी अधिक समय तक संस्कृत वाङ्मय की अनवरत सेवा करने में लगे रहे। आचार्य श्री का जन्म राजस्थान के सीकर जिलान्तर्गत राणोली ग्राम में संवत् 1948 में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम चतुर्भुज एवं माता का नाम घेवरी देवी था । उस समय उनका नाम भूरामल रखा गया। गांव की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् उनको संस्कृत भाषा के उच्च अध्ययन की इच्छा जाग्रत हुई और माता-पिता की अनुमति लेकर ये वाराणसी चले गये जहां उन्होंने संस्कृत एवं जैन सिद्धान्त का गहरा अध्ययन करके शास्त्री की परीक्षा पास की। राजस्थान के प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् प. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ आपके सहपाठियों में से थे । काशी के स्नातक बनने के पश्चात ये वापिस ग्राम आ गये और ग्रन्थों के अध्ययन के साथ-साथ स्वतन्त्र व्यवसाय भी करने लग । लेकिन काव्य- निर्माण में विशेष रुचि लेने के कारण उनका व्यवसाय में मन नहीं लगा । विवाह की चर्चा आने पर उन्होंने आजन्म अविवाहित रहने की अपनी हार्दिक इच्छा व्यक्त की और अपने आपको मां भारती की सेवा में समर्पित कर दिया । महाकवि के रूप में आचार्य श्री ने तीन महाकाव्य वीरोदय, जयोदय एवं दयोदय चम्पू चरित्र काव्य- समुद्रदत्त चरित्र, सुदर्शनोदय, भद्रोदय आदि एवं हिन्दी काव्य ऋषभचरित, भाग्योदय, विवेकोदय आवि
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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