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उपरोक्त कवि जिनहर्ष के गुरुभ्राता कवि लाभवर्द्धन ने चाणक्यनीति और सुभाषित ग्रंथ पर राजस्थानी भाषा मेंटब्बा लिखा। टब्बा एक तरह से संक्षिप्त अर्थ को कहते हैं, पर बालावबोध में विस्तृत विवेचन होता है टब्बे लिखने की शैली भी ऐसी होती है कि जिसमें प्राकृत या संस्कृत प्रादि के मूल ग्रंथ की एक पंक्ति बड़े अक्षरों में लिखी जाती है और उसके ऊपर छोटे प्रक्षरों में उसका अर्थ लिख दिया जाता है।
खरतरगच्छीय पं. रत्नराज के शिष्य रत्नजय जिनका गृहस्थावस्था का नाम संभवतः नरसिंह था, उन्होंने छठे अंगसून ज्ञाता पर टब्बा बनाया जिसका परिमाण 13581 श्लोकों का है। इसकी प्रति संवत् 1733 की लिखी हुई मिली है। उन्होंने सप्तस्मरण टब्बा बनाया। सुप्रसिद्ध कल्पसूत्र और हर्षकीति सूरि के संस्कृत वैद्य ग्रंथ 'योग-चिन्तमणि' पर बालावबोध नामक भाषा टीकायें बनायीं। इनमें से कल्पसूत्न बालावबोध का परिमाण 5229 श्लोकों का है। यहां जो श्लोंको का परिमाण बतलाया जाता है वह अनुष्ठपूछंद में 32 अक्षर होते हैं अतः गद्य के भी 32 अक्षरों को एक श्लोक मानकर ग्रन्थों का परिमाण बतलाना चालू हो गया। जो लहइया लोग ग्रन्थों की प्रतिलिपि करते थे उनको भी लिखाई का पारिश्रमिक श्लोक परिमाण के हिसाब से दिया जाता था जैसे 100 या 1000 श्लोक की लिखाई की रेट (दर) तय हो जाती थी और ग्रन्थ की नकल कर लेने पर 32 अक्षरों के श्लोक के हिसाब से लिखाई के जितने श्लोक होते उससे पैसों का चुकारा कर दिया जाता।
18वीं शताब्दी के विद्वान् उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ ने संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी तीनों भाषामों में राजस्थानी रचनायें की हैं। इन्होंने गद्य में भर्तृहरि के शतक तय और पृथ्वीराज
का टब्बा या अर्थ लिखा, जिससे इन ग्रन्थों को सर्वसाधारण समझ सके। पथ्वीराज वेलि राजस्थानी का सुप्रसिद्ध सर्वोत्तम काव्य बीकानेर के माहाराजा पृथ्वीराज ने बनाया है। डंगर भाषा की यह उत्कृष्ट कृति समझने में कठिन पड़ती है इसलिये कई जैन विद्वानों ने इस काव्य के संस्कृत व राजस्थानी में टीकार्य लिखी हैं। उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ ने इसकी भाषा टीका विजयपुर के चतुर व्यक्तियों की अभ्यर्थना से बनायी। इसकी संवत् 1750 की लिखी हुई प्रति प्राप्त हुई है ।
कवि कमलहर्ष के शिष्य विद्याविलास ने संवत् 1728 में कल्पसूत्र बालावबोध की रचना की। जैन प्रागमों में सबसे अधिक प्रचार कल्पसूत्र का है क्योंकि प्रतिवर्ष पर्यषगों में इसे बांचा जाता है। अतः इस सूत्र पर संस्कृत व राजस्थानी में सबसे अधिक टीकायें बनायी गई हैं।
वाशामा
18वीं शताब्दी के खरतरगच्छीय जैन विद्वानों में उपाध्याय धर्मवर्द्धन राजमान्य विदान थे। इनकी लघ रचनाओं का संग्रह मैंने सम्पादन करके 'धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली' के नाम से प्रका शित करवा दिया है। इन्होंने खण्डेलवाल रखा जी के पौत्र, जीवराज के पुत्र नैना के लिये दिगम्बर अपभ्रंश आध्यात्मिक ग्रंथ, परमात्म-प्रकाश की हिन्दी में भाषा टीका संवत 116 में बनायी. जिसको एक मात्र प्रति अजमेर के दिगम्बर भट्टारकीय शास्त्र भंडार में प्राप्त है। इनके शिष्य कीर्तिसुन्दर ने एक 'नाग विलास कथा संग्रह' नामक कथाओं की संक्षिप्त सचना करने वाले ग्रन्थ की रचना गद्य में की, जिसे मैंने वरदा में प्रकाशित करवा दिया है।
खरतरगच्छ की सागरचन्द्रसूरि शाखा के कवि लक्ष्मीविनय ने संस्कृत के ज्योतिष ग्रन्थ भवनदीपक की बालवबोध भाषा टीका संवत् 1767 में बनायी। इसके पहले पुष्प शिष्य अभयकुशल ने सिणली ग्राम के चतुर सोनी के आग्रह से भर्तृहरि शतक बालावबोध की रचना संवत् 1755 में की। इनके गुरु पुण्यहर्ष ने इनके साथ रहते हये दिगम्बर प्रन्य पदमनन्दी पंचविशिका की हिन्दी भाषा में टीका संवत् 1722 में भागरा के जगतराय के लिये बनायी।