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________________ 280 उदयसागर ने सं. 1676 उदयपुर में क्षेत्रसमास बलावबोध मन्त्री धनराज के पुत्र गंगा at अभ्यर्थना से बनाया । पार्श्वचन्द्र गच्छीय राजचन्द्रसूरि ने दशवैकालिक बालावबोध, हर्षबल्लभ उपाध्याय ने उपासकदशांग बालावबोध की रचना सं. 1669 में की। सूरचन्द्र ने चातुर्मासिक व्याख्यान सं. 1694 में, मतिकीर्ति ने प्रश्नोत्तर सं. 1691 जैसलमेर में, कमलालाभ ने उत्तराध्ययन बालावबोध सं. 1674 और 1689 के बीच में बनाया । कल्याण सागर ने दानशील-तप-भाव-तरंगिणी की रचना सं. 1694 में उदयपुर में की। नयविलास रचित लोकनाल बालावबोध की प्रति मेरे संग्रह में है । खरतरगच्छीय उपाध्याय कुशलधीर ने पृथ्वीराजकृत कृष्णरुकमणी री वैलि बालावबोध की रचना सं. 1696 में की। इनने रसिकप्रिया बालावबोध सं. 1724 जोधपुर में बनाया । 18वीं शताब्दी में भी राजस्थानी में गद्य रचना की परम्परा चलती रही। पर उसमें एक नया मोड़ भी आया । 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही राजस्थान में हिन्दी का प्रभाव पड़ना शुरू हुआ। क्योंकि एक और मुगल बादशाहों से राजस्थान के राजाओं का सम्पर्क बढ़ा । ये बादशाहों के अधीन होकर अनेक हिन्दी प्रदेशों में युद्ध करने गये । श्रतः हिन्दी भाषा और साहित्य का प्रभाव उन पर पड़ा । फिर शाहजहां के बाद हिन्दी कवियों और लेखकों तथा कलाकारों को जो प्रोत्साहन मिलता था वह औरंगजेब के समय से मिलना बन्द हो गया ! फलत: अनेक कवि और कलाकार राजस्थान के राजाओं के आश्रित बन गये । उनके राजदरबार में प्रतिष्ठा और प्रभाव बढ़ने के कारण भी 18वीं शताब्दी से राजस्थानी के साथ-साथ हिन्दी में भी रचनाएं राजस्थान में होने लगी । जैन कवियों का भी राजाओं से अच्छा सम्बन्ध रहा है। हिन्दी के कवियों और गुणीजनों से भी वे प्रभावित हुए। इसलिये राजस्थानी के जैन कवियों ने भी 18वीं 19वीं शताब्दी में राजस्थानी के साथ-साथ हिन्दी में भी काफी रचनाएं हैं । पद्य रचनाओं के साथ-साथ गद्य में भी हिन्दी का प्रयोग होने लगा। दिगम्बर सम्प्रदाय में तो हिन्दी के कवि और गद्य लेखक बहुत अधिक हो गये । क्योंकि 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के कवि बनारसीदास यद्यपि श्रागरा में हुए पर उनकी रचनाओं का प्रचार राजस्थान और पंजाब तक बढ़ता गया । उनके प्रचलित दिगम्बर तेरापंथ का भी प्रभाव पड़ा 1 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में श्वेताम्बर खरतरगच्छीय कवि जसराज जिनका दीक्षा नाम 'जिन हर्ष' था ने बहुत बड़ा साहित्य निर्माण किया । उनका प्रारम्भिक जीवन काल राजस्थान में तथा पिछला गुजरात के पाटण में बीता । लक्ष्याधिक पद्य रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने गद्य में दीवाली कल्प बालावबोध, स्नात पंचासिका, ज्ञान पंचमी और मौन एकादशी पर्व कथा बालबोध की रचना की । यहां यह स्पष्ट कर देना भावश्यक है कि बहुत से जैन कवियों के गद्य में राजस्थानी एवं गुजराती का मिलाजुला रूप मिलता है । क्योंकि उनका उद्देश्य था गुजरात और राजस्थान दोनों प्रांतों के जैनी उनकी रचना को ठीक से समझ सकें। वैसे भी उनका बिहार दोनों प्रान्तों में समान रूप से होता था, श्रतः भाषा में मिश्रण होना स्वाभाविक ही है । राजस्थान के यति चाहे वे पंजाब में तथा चाहे वे बंगाल की ओर गये हों और मालवे में तो राजस्थानी का प्रभाव था ही । प्रतः इन सब प्रान्तों में जो उन्होंने रचनायें कीं वे अधिकांश राजस्थानी भाषा में ही है। क्योंकि वहाँ के अधिकांश जैनी राजस्थान से ही गए हुए थे और उनकी घरेलू बोली राजस्थानी ही थी । इसलिये राजस्थानी में लिखी हुई रचना उनके लिये समझने में सुगम थी । 18वीं शताब्दी के कवि जयरंग के शिष्य सुगुणचन्द ने ध्यानशतक बालावबोध की रचना संवत् 1736 फागुन सुदी 5 को बैसलमेर में की।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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