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ज्ञानचन्द्र के शिष्य कवि श्री देव ने जैन भूगोल संबंधी प्राकृत ग्रन्थ क्षेत्र समास बालावबोध की रचना की ।
महानतत्ववेत्ता उपाध्याय देवचन्द्र जी ने मरोठ की श्राविका के लिये जैन श्रागमों के सार रूप में श्रागम सार ग्रन्थ गद्य रूप में संवत् 1776 में बनाया । इन्होंने नयचक्रद्र सार बालावबोध गुण-स्थान- शतक व कर्मग्रन्थ बालावबोध, विचार सार टब्बा, गुरु गुण षट्त्रिशिका टब्बा और विचार रत्नसार प्रश्नोत्तर ग्रन्थ गद्य में विवेचित किये। अपने बनाये हुए 24 तीर्थंकरों पर भी इन्होंने बालावबोध भाषा टीका बना के उन स्तवनों के विशुद्ध भावों को स्पष्ट किया । आपने सप्त स्मरण बालावबोध, दण्डक बालावबोध और शांतरस आदि और भी गद्यात्मक रचनायें कीं ।
18वीं के उत्तरार्द्ध और 19वीं के प्रारम्भ के जैन विद्वान् महोपाध्याय रामविजय ने कई गद्य रचनायें करके उन प्राकृत संस्कृत ग्रन्थों को सर्व साधारण के लिये सुगम बना दिया । इनमें से कल्पसूत्र बालावबोध का रचनाकाल तो 19वीं के प्रारम्भ का है । इनकी सबसे पहली गद्य रचना 'जिनसुख सूरि मझलस' हिन्दी की छटादार तुकान्त गद्य रचना बडी सुन्दर है, जो संवत् 1772 में रची गयी । इसके बाद उन्होंने संवत् 1788 में भर्तृहरि शतकत्रय बालावबोध सोजत के छाजेड मंत्री जीवराज के पुत्र मनरूप के श्राग्रह से बनाया । उसी के श्राग्रह से श्रमरु शतक बालावबोध की रचना संवत् 1791 में की ।
इन्होंने सुप्रसिद्ध कविवर बनारसीदास जी के समय-सार के हिन्दी आध्यात्मिक काव्य की बाला बोध भाषा टीका स्वर्णगिरि के गणधर गोत्रीय जगन्नाथ के लिये संवत् 1792 में की । संवत् 1792 में लघु स्तव नामक देवी स्तुति की भाषा टीका बनायी । इनके अतिरिक्त भक्तामर टब्बा, नवतत्व टब्बा, दुरिश्वर स्तोत्र टब्बा, कल्याण-मन्दिर टब्बा, सन्निपात कलिका टब्बा और हेमीनाममाला भाषा टीका की रचना की । अर्थात् ये बहुत अच्छे व बडे गद्य लेखक थे ।
खरतरगच्छीय जसशील के शिष्य नैनसिंह ने बीकानेर के महाराजा आनन्दसिंह के कहने से भर्तृहरि नीतिशतक की हिन्दी भाषा टीका संवत् 1786 में लिखी ।
इस शताब्दी में जयचन्द नाम के दो विद्वान् हुये हैं जिनमें से एक ने माताजी की वचनिका नामक राजस्थानी की एक सुन्दर गद्य रचना संवत् 1776 में कुचेरा में रहते हुये बनायी । यह राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी से प्रकाशित परम्परा में छप चुकी है ।
दयातिलक के शिष्य दीपचन्द्र ने बालतंत्र नामक संस्कृत वैद्यक ग्रन्थ की हिन्दी भाषा टीका संवत् 1792 जयपुर में बनायी जिसकी हस्तलिखित प्रति हमारे संग्रह में है ।
18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में खरतरगच्छीय विमलरत्न ने वीर चरित्र वालावबोध संवत् 1702 सांचोर में बनाया जिसका परिमाण 552 श्लोकों का है । इसके बाद समयवसुन्दरजी की परम्परा के राजसोम ने श्रावकाराधना भाषा और इरिया वही मिथ्यादुष्कृत बालाबोध की रचना की, जिसकी प्रति संवत् 1709 की प्राप्त है । संवत् 1719 में ख. ज्ञाननिधान ने विचार छत्तीसी गद्य ग्रन्थ बनाया ।
पार्श्वचन्द्र गच्छीय रामचन्द्र ने द्रव्य संग्रह बालावबोध की रचना की है ।
जैसा कि पहले कहा गया है कि राजस्थान के खरतरगच्छीय कवियों ने पंजाब सिंघ में चातुर्मास करते हुये भी राजस्थानी गद्य में रचनायें कीं । जैसे ख. पद्मचन्द्र शिष्य ने नवतत्व का