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________________ 193 गटकों में इनकी और भी कई फुटकर रचनायें मिलती हैं। इन्होंने कई उपदेशात्मक पद भी लिखे हैं जो वैराग्य भाव से परिपूर्ण हैं और उनमें प्रभाव डालने की क्षमता है। सभी संतों के प्रति इनके मन में बड़ा आदर था। अतः जो भी गुणी संत जयपुर में आते, उनके गुण-कीर्तन के रूप में इनकी काव्य धारा फूट पड़ती। विभिन्न साधुनों पर लिखी गई ऐसी कई रचनायें प्राप्य हैं। (स) साध्वी कवयित्रियां: भारतीय धर्म परम्परा में साधुओं की तरह साध्वियों का भी विशेष योगदान रहा है । ऐतिहासिक पम्परा के रूप में हमें भगवान महावीर के बाद के साधुओं की प्राचार्य-परम्परा का तो पता चलता है पर साध्वियों की परम्परा अन्धकाराच्छन्न है। भगवान महावीर के समय में 36,000 साध्वियों का नेतृत्व करने वाली चन्दनबाला उनकी प्रमुख शिष्या थी। महावीर से ही तत्व-चर्चा करने वाली जयन्ती का उल्लेख 'भगवती सूत्र' में आया है। अतः यह निश्चित है कि साधुओं और श्रावकों के साथ-साथ साध्वियों और श्राविकाओं की भी अवच्छिन्न परम्परा रही है। इतिहासज्ञों एवं साहित्यकर्मियों का यह महत्वपूर्ण दायित्व है कि वे इस परम्परा को खोजें। साधनों की तरह साध्वियों का भी अन्य क्षेत्रों की तरह साहित्य के निर्माण और संरक्षण में भी महत्वपूर्ण योग रहा है। 14वीं शती से लेकर आज तक काव्य-रचना में रत जिन साध्वियों का उल्लेख मिलता है, उनमें गुण समृद्धि महत्ता, विनयचुला, पद्मश्री, हेमश्री, हेमसिद्धि, विवेकसिद्धि, विद्या सिद्धि आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। 2 यहां स्थानकवासी परम्परा से संबद्ध कतिपय साध्वी कवयित्रीयों का संक्षेप में परिचय दिया जा रहा है 1. हरकू बाई: प्राचार्य विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, जयपुर में पुष्ठा सं. 105 में 88 वीं रचना में 'महासती श्री अमरुजी का चरित्न' इनके द्वारा रचित मिलता है। इसकी रचना संवत् 1820 में किशनगढ़ में की गई है। इन्हीं की एक अन्य रचना 'महासती चतरुजी सज्झाय' भी मिलती है, जिसका प्रकाशन श्री अगरचन्द जी नाहटा ने 'ऐतिहासिक काव्य संग्रह' में पू. सं. 214-15 पर किया है। 2. हुलासाजी:-- प्राचार्य विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, जयपुर में पुष्ठा सं. 218 में 50 वीं रचना 'क्षमा व तप ऊपर स्तवन' इनकी रचित मिलती है। इसकी रचना संवत् 1887 में पाली में हुई। 3. सरूपाबाई: ये पूज्य श्री श्रीमलजी म. सा. से संबंधित हैं। नाहटाजी ने 'ऐतिहासिक काव्य संग्रह में पृ. 156-58 पर इनकी एक रचना 'पू. श्रीमलजी की सज्झाय' प्रकाशित की है। 1. प्रा. वि. ज्ञा. भ. में ये सुरक्षित हैं। 2. देखिये-डा. शान्ता भानावत का 'मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रंथ' में प्रकाशित साध्वी परम्परा की जैन कवयित्रियां' शीर्षक लेख, पु. 301-3071
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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