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________________ 286 और स्वर्गवास सं. 1965 में हुआ था। इनकी निम्नलिखित रचनायें प्राप्त हैं : स्याद्वादानुभव रत्नाकर, सं. 1950 अजमेर, दयानन्द मत निर्णय (नवीन आर्य समाज भ्रमोच्छेदन कुठार), द्रव्यानुभवरत्नाकर, सं. 1952 मेडतारोड, प्रात्म भ्रमोच्छेदन भानु, अध्यात्म अनुभव योग प्रकाश, सं. 195 5, श्रु त अनुभव विचार, सं. 1952, शुद्ध देव अनुभव विचार, सं. 1952, जिनाज्ञा विधि प्रकाश, कुमत कुलिंगोच्छेदन भास्कर, सं. 1955, आगमसार अनुवाद, शुद्ध समाचारी मण्डन । उस समय का युग खण्डन-मण्डन का था। अतएव आपको कई ग्रन्थ खण्डन-मण्डनात्मक लखने पड़े। वैसे आप अष्टांग योग के बड़े जानकार व अनभवी थे। 'अध्यात्म अनुभव योग प्रकाश' में इस विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है। द्रव्यानुभव रत्नाकर, शुद्धदेव अनुभव विचार प्रादि दार्शनिक व आध्यात्मिक ग्रन्थ है। 49. जिनकृपाचन्द्रसूरि सं. 1913 में जोधपुर राज्य के चाम गांव में आपका जन्म हुआ था। खरतरगच्छीय जिनकीर्तिरत्नसूरि शाखा के युक्तिअमृत मुनि के शिष्य प्राप सं. 1936 में बने । पश्चात क्रियोद्धार किया। सं. 1973 में आपको प्राचार्य पद प्राप्त हुआ और स्वर्गवास सं. 1994 में हा। आप पागम साहित्य के विशिष्ट विद्वान थे। बीकानेर में श्री जिन कृपाचन्द्रसूरि उपाश्रय आज भी रांगडी चौक में विद्यमान है। आपके विद्वान शिष्य सुखसागर जी ने पचासों ग्रन्थों का सम्पादन व प्रकाशन किया था। आपके पट्टधर श्री जयसागर सरि बहत अच्छे विद्वान थे। उ. सूखसागर जी के शिष्य म नि कान्तिसागर जी बडे प्रतिभाशाली विद्वान और प्रसिद्ध वक्ता थे। __ श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी ने साधारण जनोपयोगी स्तवन, स्तुतियां आदि बनाकर एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति की। इनकी पद्यात्मक कृतियों का संकलन "कृपाविनोद' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। आपने कल्पसूत्र की टीका का भावानुवाद, श्रीपाल चरित्र प्राकृत काव्य का हिन्दी अनुवाद, द्वादशपर्व व्याख्यान अनुवाद, जीव विचारादि प्रकरण संग्रह अनुवाद और गिरनार पूजा की रचनायें की हैं। ये सब ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। इनके प्रशिष्य मुनि कान्तिसागर जी की निम्नोक्त रचनायें प्रकाशित हैं:1. खण्डहरों का वैभव, 2. खोज की पगडंडियां, 8. जैन धातु प्रतिमा लेख, 4. श्रमण संस्कृति और कला, 5. नगर वर्णनात्मक हिन्दी पद्य संग्रह, 6. सईकी, 7. जिनदत्तसूरि चरित्र आदि । आपके अनेक शोधपूर्ण लेख कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। उदयपुर महाराणा की प्रेरणा से आपने “एकलिंग जी का इतिहास" वर्षों तक परिश्रम करके तैयार किया था किन्तु वह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है । 50. ज्ञानसुन्दर (देवगुप्तसूरि) इनका जन्म 1937 वीसलपुर (मारवाड़) में हुआ था। इन्होंने सं. 1963 में स्थानकवासी दीक्षा ग्रहण की और सं. 1972 में स्थानकवासी संप्रदाय छोड़ कर तपागच्छीय
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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