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________________ अपभ्रंश साहित्य के आचार्य 4 -~-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल . राजस्थान में अपभ्रश साहित्य को सर्वाधिक प्रश्रय मिला । मुस्लिम शासन काल में मटटारकों ने अपभ्रश भाषा के ग्रंथों का अपने शास्त्र-भण्डारों में अच्छा संग्रह किया और उनकी पाण्डुलिपियां करवाकर उनके पठन-पाठन में योगदान दिया । राजस्थान के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों के शास्त्र-भण्डारों में अपभ्रश के ग्रन्थ या तो मिलते ही नहीं है और कदाचित कहीं-कहीं उपलबध भी होते हैं तो उनकी संख्या बहुत कम होती है । राजस्थान में अपभ्रश के ग्रन्थों की ष्टि से भट्टारकीय शास्त्र भण्डार नागौर, अजमेर, जयपुर के शास्त्र-भण्डार सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं और इन्हीं भण्डारों में अपभ्रश का 95 प्रतिशत साहित्य संग्रहीत है । अपभ्रश के सभी प्रमुख कवि जैसे स्वयम्भ, पुष्पदन्त, धवल, वीर, नयनन्दि, धनपाल, हरिषेण, रइधु की अधिकांश कुतियां इन्हीं भण्डारों में सुरक्षित है । और जो कुछ साहित्य प्रकाश में आया है अथवा इस साहित्य पर शोध-कार्य हुआ है वह सब राजस्थान के जैन भण्डारों में संग्रहीत पाण्डुलिपियों के आधार पर ही सम्पन्न हो सका है। अब यहां अपभ्रश के ऐसे कवियों पर प्रकाश डाला जा रहा। जिनका राजस्थान का किसी न किसी रूप में सम्बन्ध रहा है। 1. महाकवि नयनन्दिः महाकवि नयनन्दि अपभ्रंश के उन कवियों में से है जिनसे अपभ्रश साहित्य स्वयं गौरवान्वित है। जिनकी लेखनी द्वारा अपनश में दो महाकाव्य लिखे गये और जिनके द्वारा उसके प्रचार-प्रसार में पूर्ण योगदान दिया गया । महाकवि नयनन्दि 11 वीं शताब्दि के अन्तिम चरण के विद्वान् थे । इनकी अब तक दो कृतियां उपलब्ध हुई हैं और दोनों की पाण्डुलिपियां जयपुर के महावीर भवन के संग्रह में है । नयनन्दि परमारवंशी राजा भोजदेव त्रिभुवन नारायण के शासन काल में हए थे । इनके राज्यकाल के शिलालेख संवत 1077 से 1109 तक के उपलब्ध होते हैं । त्रिभुवन नारायण का शासन राजस्थान के चितौड प्रदेश पर भी रहा था । इस कारण नयनन्दि को राजस्थानी कवि भी कहा जा सकता है । इन्होंने अपना प्रथम महाकाव्य “सुदंसण चरिउ" को धारा नगरी के एक जैन मन्दिर के विहार में बैठकर समाप्त किया था। मालवा और राजस्थान की सीमाएं भी एक दूसरे से लगी हुई हैं इसलिये नयनन्दि जैसे विद्वान का सम्पर्क तो दोनों ही प्रदेशों में रहा होगा। सुदंसण चरिउ का रचना काल संवत 1100 है। 1 यह महाकाव्य अभी तक अप्रकाशित है । सुदंसण चरिउ अपभ्रश का एक प्रबन्ध काव्य है जो महाकाव्यों की श्रेणी में रखने योग्य है । ग्रन्थ का चरित भाग रोचक एवं आकर्षक है तथा अलंकार एव काव्य-शैली दोनों ही दष्टियों से महत्वपूर्ण है । महाकवि ने अपने काव्य को निर्दोष बतलाया है तथा कहा है कि रामायण में राम और सीता का वियोग, महाभारत में पाण्डवों एवं कारवों का परस्पर कलह एवं मार-काट तथा लौकिक काव्यों में कौलिक, चौर, व्याध आदि की कहानियां सुनने में आती 1. णिव विक्कम काल हो ववगएसु, एगारह संवच्छर सएसु । तहि केवली चरिउ अभयच्छरेण, णयणंदी विरयउ वित्थरेण ॥
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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