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________________ 151 'सन्तोषतिलक जयमाल' भी एक रूपक काव्य है। इसमें शील, सदाचार, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, वैराग्य, तप, करुणा, क्षमा तथा संयम के द्वारा सन्तोष की उपलबिध का वर्णन किया गया है । यह रचना वि. सं. 1591 में हिसार नगर में लिख कर सम्पूर्ण हुई थी । यह एक प्राचीन राजस्थानी रचना है । ___इनके अतिरिक्त अन्य कवियों में से अपभ्रश-साहित्य की श्री-समृद्धि को समुन्नत करने वाले लगभग आठ-दस साहित्यकारों का उलेख किया जा सकता है । परन्तु उनके सम्बन्ध में कोई विवरण उपलब्ध न होने से कुछ भी कहना उचित प्रतीत नहीं होता है । हां, कुछ ऐसे विद्वानों का विवरण देना अनचित न होगा, जिन्होंने स्वयं अपभ्रंश की कोई रचना नहीं लिखी पर दूसरों को प्रेरित कर लिखने या लिखवाने में अथवा प्रतिलिपि कराने में अवश्य योग दिया है । भट्टारक प्रभाचन्द्र का नाम इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है । दि. जैन आम्नाय में प्रभाचन्द्र नाम के चार भट्टारक विद्वानों के नाम मिलते हैं। प्रथम भद्रारक प्रभाचन्द्र बारहवीं शताब्दी के सेनगण भद्रारक बालचन्द्र के शिष्य थे। दूसरे प्रभाचन्द्र चमत्कारी भट्टारक थे जो गुजरात के बलात्कारगण शाखा के भ. रत्नकीर्ति क शिष्य थे। तीसरे प्रभाचन्द्र भ. जिनचन्द्र के शिष्य थे और चौथे प्रभाचन्द्र ज्ञानभूषण के शिष्य थे।। भटारक जिनचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र खण्डेलवाल जाति के थे। वि. सं. 1571 में दिल्ली के पट्ट पर इनका अभिषेक हुआ । भट्टा क बनने के पश्चात् इन्होंने अपनी गद्दी दिल्ली से स्थानान्तरित कर चित्तौड में प्रतिष्ठित की । तब से ये बराबर राजस्थान में पैदल भ्रमण करते रहे। स्थानस्थान पर इन्होंने मन्दिरों में मूर्तियों तथा साहित्य की प्रतिष्ठा का कार्य किया। ये स्वयं बहुत बडे तार्किक तथा वाद-विवादों में विद्वानों का मद-मर्दन करने वाले थे। इन्हें स्थान-स्थान पर श्रावकों की ओर से प्रतिलिपि करा कर स्वाध्याय के लिये कई अपभ्रश काव्य भेंट में प्राप्त हए थे । उनके नाम इस प्रकार हैं-पुष्पदन्त कवि कृत 'जसहरचरिउ' की प्रति वि. सं. 1575 म, पं. नरसेन कृत 'सिद्धचक्र-कथा' टोंक में वि.सं. 1579 में, पुष्पदन्त कृत 'जसहरचरिउ' सिकन्दराबाद में वि. सं. 1580 में, इनके शिष्य ब्र. रत्नकीर्ति को महाकवि धनपाल कृत "बाहुबलिचरित" वि. सं. 1584 में स्वाध्याय के लिये भेंट प्रदान किया गया था । इससे पता चलता है कि सोलहवीं शताब्दी में अपभ्रंश साहित्य की अध्ययन-परम्परा बराबर बनी हुई थी। तथा साहित्थान में पैदल से स्था यथार्थ में राजस्थान श्रमण जैन संस्कृति का अत्यन्त प्राचीन काल से एक प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, संस्कृत, हिन्दी आदि विभिन्न भारतीय भाषाओं में लगभग सभी विषयों पर साहित्य लिखा जाता रहा है । साहित्य, कला, पुरातत्व आदि की दृष्टि से यह प्रदेश अत्यन्त समृद्ध है, इस में कोई सन्देह नहीं है । इन सभी क्षेत्रों में जैन साहित्यकार कभी पीछे नहीं रहे हैं, वरन् वे अग्रतम पंक्ति में आते हैं, यह इस निबन्ध से प्रकट हो जाता है। 1. डा. कस्तूर चन्द कासलीवाल : राजस्थान के जैन सन्त-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ. 183 2. वही. 185
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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