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________________ 153 हैं किन्तु उसके काव्य में ऐसा एक भी दोष नहीं है ।। ग्रन्थ में 12 संधियां और 207 कडवक छन्द हैं जिनम सूदर्शन के जीवन-परिचय को अंकित किया गया है । सुदर्शन एक वणिक् श्रेष्टी है । उसका चरित्र अत्यन्त निर्मल तथा सुमेरु के समान निश्चल है । उसका रूप-लावण्य इतना आकर्षक था कि यवतियों का समुह इसे देखने के लिये उत्कंठित होकर महलों की छतों पर एवं झरोखों में एकत्रित हो जात था । यह साक्षात् कामदेव था । उसके यहां अपार धन-सम्पदा थी किन्तु फिर भी वह धर्माचरण मे तत्पर, मधरभाषी एवं मानव-जीवन की महत्ता से परिचित था । सुदर्शन का चरित्र भारतीय संस्कृति का जीवन है जो लोभ एवं प्रांचों में भी अपने चरित्र की रक्षा करता है। सयलविहि-विहाणकव्वः-- ___ यह महाकवि का दूसरा काव्य है जो 58 संघियों में पूर्ण होता है। प्रस्तुत काव्य विशाल काव्य है जिसका किसी एक विषय से संबंध न होकर विविध विषयों से संबंध है। इस ग्रन्थ की एक मात्र पाण्डलिपि आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में संग्रहीत है जिनमें बीच की 16 संधियां नहीं है। कवि ने काव्य के प्रारम्भ में अपने पूर्ववर्तो जैन एवं जनतर विद्वानों के नामों का उल्लेख किया है। इन विद्वानों में वररुचि, वामन, कालिदास, कौतुहल, बाण, मयूर, जिनसेन, वादरायण, श्रीहर्ष, राजशेखर, जसचन्द्र, जयराम, जयदेव, पादलिप्त, वीरसेन, सिंहनन्दी, गुणमद्र, समन्तभद्र, अकलंक, दण्डी, भामह, भारवि, भरत, चउमुह, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, श्रीचन्द, प्रभाचन्द्र के नाम उल्लेखनीय है । कवि ने अपन इस काव्य में विभिन्न छन्दों का प्रयोग किया है जिनकी संख्या 50 से अधिक होगी। छन्द शास्त्र की दृष्टि में इनका अध्ययन अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। काव्य की दूसरी संधि में अंबाडम एवं कंचीपुट का उल्लेख है। 'अंबाडम' अम्बावती का ही दूसरा नाम हो सकता है जो बाद में आमेर के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इससे भी सिद्ध होता है कि नयनन्दि को राजस्थान से विशेष प्रेम था और वह इस प्रदेश में अवश्य घुमा होगा। रामो सीय-विओय-सोयविहुरं संपत्तु रामायणे, जादं पांडव-धायरट्र-सददं गोत्तं कली भारहे । डेडा-कोलिय चोर-रज्ज-णिरदा आहासिदा सुद्दये, णो एक्कं पि सुदंसणस्स चरिदे दोसं समुभासिदं । मणु जण्ण वक्कु वम्मीउ वासु, वररुइ वामण, कवि, कालियासु । कोऊहल बाण मउरू सूरु, जिणसेण, जिणागम-कमल-सूरू । वारायण वरणाउ विवियदद्द , सिरिहरिसु रायसेहरु गुणद्द । जसईधु जए जयराम णाम, जयदेउ जणमणाणंद कामु । पालित्तउ पाणिणि पबरसेणु, पायंजलि पिंगलु वीरसेणु । सिरि सिंहणंदि गुणसिंह भद्द, गुणभद्द गुणिल्ल समंतभद्दु । अकलंक विसम वाइय विहंडि, काम? रुद्द. गोविन्दु दंडि । भम्मुई भारहि भरहुवि माहंतु, चउमुह सयंभ कई पुप्फयन्तु । घत्ता सिरिचन्दु पहाचन्दु वि विवुह, गुणगणनंदि मणोहरु । कइ सिरिकुमार सरस इ कुमरु, कित्ति विमासिणी सेहरु ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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