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एक नायिका यद्धस्थल में अपने प्रियतम के हाथों में करवाल देखकर प्रसन्न हो जाती है । वह देखती है कि जब उसकी अथवा शत्रुओं की सेना भागने लगती है तब उसके प्रियतम के हाथों में तलवार चमकने लगती है :
भग्गउ देक्खिवि निअय-बलु बलु पसरिअउ परस्सु । उम्मिल्लइ ससिरेहं जिवं करि करवालु पियस्सु (सिद्धहेम. 354)
हेमचन्द्र के अनन्तर प्रबन्ध-चिन्तामणि में कवि मुञ्ज के भी उक्त प्रवृत्ति सम्बन्धी कुछ पोहे उपलब्ध होते हैं । यहां वीरता सम्बन्धी दो एक उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं जिससे उक्त प्रवृत्ति का आभास उपलब्ध हो सके :--
एह जम्मु नग्गहं गियउ भडसिरि खग्गु न भग्गु । तिक्खां तुरिय न माडिया गोरी गलि न लग्गु । (पद्य-75)
अर्थात् यह जन्म व्यर्थ गया क्योंकि भट के सिर पर खङ्ग भग्न नहीं किया, न तीखे घोड़े पर सवारी की और न गौरी को गले से ही लगाया ।
आपणइं प्रभु होइयइ कइ प्रभु कीजइ हत्थि । काज करेवा माणसह तीजइ मग्ग न अत्थि ॥ (पद्य 179)
अर्थात् या तो स्वयं अपने ही स्वामी हों या स्वामी को अपने हाथ में करें। कार्य करने वाले पुरुष के लिये अन्य तीसरा कोई मार्ग नहीं ।
तत्पश्चात् इसी अपभ्रश से आधुनिक भारतीय लोकभाषाओं का उदय हआ जिसमें नागर अथवा शौरसेनी अपभ्रंश से उसकी प्रायः समस्त प्रवृत्तियों को लिए हुए राजस्थानी भाषा का विकास हुआ । “राजस्थान" अथवा "राजस्थानी" शब्द युगों-युगों तक हमारे गौरव का प्रतीक-चिन्ह रहा है क्योंकि उस पूण्यभमि पर निर्मित विविध साहित्य अध्यात्म-जगत में तो सर्वोपरि रहा ही, साथ ही स्वाभिमान, संस्कृति एवं देश-गौरव की सुरक्षा की कहानी के रूप में भी वह महामहिम रहा है। उसके शौर्य-वीर्य पूर्ण साहित्य से प्रभावित होकर कर्नल टाड ने लिखा है कि "राजस्थान में कोई छोटा सा राज्य भी ऐसा नहीं है कि जिसमेंथर्मापिली जसी रणभमि न हो और न ही ऐसा कोई नगर अथवा ग्राम है जहां लाइयोनिडस जैसा वीर महापुरुष उत्पन्न न हुआ हो ।” तात्पर्य यह है कि राजस्थानी भाषा में 12वीं-13वीं सदी से ही ऐसे साहित्य का सजन होता रहा है जिसमें एक और तो जैन कवियों द्वारा शान्तरस की अविच्छिन्न-धारा प्रवाहित रही और दूसरी ओर मुगलों के आक्रमणों के बाद रण में जूझने वाले लक्ष-लक्ष राष्ट्रप्रेमी आबाल-बद्ध नर-नारियों की वीर-गाथाओं को लेकर राजस्थानी कवियों ने अपने विविध वीर काव्यों की रचनाएं की और शृगार एवं वीर रस को नया ओज प्रदान किया । समग्र राजस्थानी साहित्य का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि वह युग-युग की पुकार के अनुसार एक योजनाबद्ध 'टीम-वर्क' के रूप में विकसित हुआ है। राजस्थानी कवियों
स्थान एवं राजस्थानी-भाषा. राजस्थानी-संस्कृति, राजस्थानी-इतिहास, राजस्थानी-लोक परम्परायें तथा अध्यात्म, धर्म, दर्शन एवं विचारधाराओं तथा सम-सामयिक परिस्थितियों के अनसार समाज एवं देश को उदबोध देने हेतु अपनी-अपनी शक्ति एवं प्रतिभा के अनसार साहित्य सृजन किया है। फिर भी अध्ययन की सुविधा से उसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है :--
1. राजस्थानी जैन साहित्य 2. राजस्थानी चारण भाटों द्वारा लिखित साहित्य एवं 3. राजस्थानी लौकिक साहित्य ।