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प्राचीनता प्रामाणिकता एवं परिमाण में राजस्थानी जैन-साहित्य जैन-संस्कृति का पोषक होने पर भी भाषा-वैज्ञानिक दष्टि से अत्यन्त प्रामाणिक है, क्योंकि राजस्थानी भाषा के विकास के साथ ही जैन कवियों ने उसमें अपनी रचनाएं आरम्भ करदी थी। अतः प्रारम्भिक राजस्थानी भाषा में लिखे जाने तथा उन रचनाओं की समकालिक प्रतिलिपियां सुशिक्षित एवं गृहत्यागी साधक यतियों द्वारा लिखित होने से वे राजस्थानी भाषा के भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। वर्धमानसरि कृत 'वर्धमान पारणउ' जैसी अनेक रचनाएं राजस्थानी के उदय काल में लिखी गई। तत्पश्चात् रासा-साहित्य में भरतश्वर बाहुबाला भरतेश्वर बाहबलि रास, बद्धि रास, जीवदया रास, आब रास एवं धवलगीत जसा अनक रचनाएं इसी कोटि में लिखी गई साथ ही विविध कथा. चरित, आख्यान तथा छन्द, अलकार और
न्थ लिख जाते रहे। यह क्रम मगल-आक्रमणों के पूर्व तक तीव्र गति से चलता रहा । उसके वा विषम राजनैतिक उथल-पथल की स्थिति में चारण-भाटों ने रण-बांकुरों में रण-जोश जगाने हेतु वीरोचित अनेक काव्यों का प्रणयन किया, जो वर्षों तक कण्ठ-परम्परा में हा प्रचलित बने रहे।
कुछ विद्वानों ने राजस्थानी जैन कवियों पर सम्प्रदायवाद का दोषारोपण किया है । उसका मूल कारण राजस्थानी कवियों की विविधमखी साहित्यिक रचनाओं के प्रति उन (दोषारोपणा करने वालों) की सर्वथा अनभिज्ञता ही कही जानी चाहिये। साधन-सामग्री के अभाव अथवा स्वयं के प्रमादवश सम्भवतः उन्हें यह जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी कि जैन कवि निरन्तर
मा रहे हैं। उन्होंने जैन विषयों पर मात्र इसलिये ही नहीं लिखा है कि वे जैन थे, बल्कि इसलिये लिखा है कि जैनधर्म एवं दर्शन राजस्थान एवं गुजरात के प्रमुख धर्म-दर्शनों में से एक था तथा वहां पर जैनमियों की संख्या भी पर्याप्त थो । अतः उस युग की माग का पूर्ण करने के लिये ही उसे एक विधा के रूप में लिखा गया, जो जैनधर्म, दर्शन, आचार एवं अध्यात्म को तो पुष्ट करता ही है साथ ही वह भाषात्मक प्रवृत्तियो, साहात्य शोलियों, विविध कथाओं, चरितों, आख्यानों, छन्दभेदों तथा अलंकार, रस एवं रातिनसखाता
र, कबीर एवं तुलसी साहित्य का साहित्य क विकास-क्षेत्र में जो अनुदान है, राजस्थानी जैन कवियों के अनदान उनसे कम नहीं मान जा
द राजस्थानी जैन कवि सम्प्रदायवादी तथा एकांगी विचारधारा वाले होते तो दलपत, हेमरत्न, लबधोदय, कुशल लाभ. राजसोम, सोमसुन्दर, विद्याकुशल, चार
ना जन कवि (खुमानरासो, गोरा बादल चउपड आदि) जैनेत्तर रचनाएं कभी न लिखत। जन कवि महणोत नणसी यदि राजस्थानी ख्यातें न लिखते तो राजस्थान एवं गजरात का इतिहास लिखा जाना भी सम्भव न होता । राठोरों की ख्यातें. राठोरों की वंशावलियां तथा प्रबन्धकाश,
घनचन्तामणि पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह, कुमारपाल प्रतिबोध प्रभति ग्रन्थ राजस्थान एवं गुजरात क इतिहास के लिये ही नहीं अपित भारतीय-साहित्य एवं इतिहास के भी सात-सदभ
गय है । जैन कवि भानुचन्द्र सिद्धिचन्द्र गणि ने लोहे के चने समझी जाने वाली बाणभट्टकृत कादम्बरी की सरल संस्कृत टीका न लिखी होती. तो वह सम्भवतः लुप्त-विलुप्त अथवा अपठित एवं अप्रकाशित ही रहती । इसी प्रकार लीलावती भाषा चउपइ, गणितसार चउपह, सारस्वत बालावबोध, वत्तरत्नाकर बालावबोध, रसिकप्रिया बालावबोध, अमरुशतक टाका, क्रिसनबलीरुक्मिणी टीका, माधव निदान टबबा, चमत्कार चिन्तामणि बालावबोध, अगफुरकन चउपइ, मुहुर्त चिन्तामणि बालावबोध, हीरकलश, चाणक्यनीति टबबा, हीयाली, ऊंदररासा,
सा, लोचन काजल संवाद, कपरमंजरी, ढोलामारु, भोज चरित्र, विक्रमचरित्र, विल्हणपंचाशिका, सदयवत्ससालिंगा चउपइ प्रभति रचनायें एसी है, जो जैनेतर विषयों से सम्बन्धित हैं, किन्तु वे सभी राजस्थानी जैन कवियों द्वारा लिखित हैं और वे राजस्थानी साहित्य की सर्वोपरि रचनाएं भी सिद्ध हई है। वस्तुतः जैन कवियों के सम्मुख जनाजन का भेदभाव न था। उनके सम्मख तो एक ही दष्टिकोण था--राजस्थानी-भाषा, राजस्थानी-साहित्य, लोकमंगल, सवों दय एवं समन्वय की भावना को जागत कर उनके आदर्श रूपों को अधिकाधिक लोकोपयोगी बनाकर उनका सहज रूप में प्रस्तुतीकरण । अपने इसी