SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 143 लक्ष्य की पूर्ति में जैन कवि व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं की भी निरन्तर उपेक्षा करते रहे। ऐसे शिरोमणि महाकवियों में समयसुन्दर, जिनहर्ष, जिनसमुद्रसूरि (बंगड), हालू, कुशललाभ, जिनदत्तसूरि, विनयसमुद्र, मतिसागर, लबधोदय, सुमतिहंस, सिंहगणि, बच्छराज, मानसागर, सारंग, लक्ष्मीवल्लभ, हीरानन्द, केशव, धेल्ह, आनन्दधन प्रभति प्रमुख हैं। ये निश्चय ही ऐसे सरस्वती-पुत्र हैं जिन्होंने अपने साहित्य-साधना द्वारा राजस्थानी-अपभ्रश के माध्यम से राष्ट्रभारती की वेदिका को धोतित कर उसे महाय॑दान दिया है। राजस्थानी जैन कवियों ने राजस्थानी जैनेतर कवियों की कमी पूर्ति तो की ही, उन्होंने राजस्थानी साहित्य-शैलियों का कोना-कोना भी छान मारा और उन्हें जहां जो रिक्तता का अनुभव हुआ उसे पूरा ही नहीं किया बल्कि प्रत्येक विधा में उन्होंने भरमार जैसी ही करदी। यदि उन्होंने छन्दशास्त्र पर कुछ लिखा तो सामान्य रूप से ही नहीं बल्कि स्वरसंगीत की दष्टि से पृथक, वर्ण-संगीत की दृष्टि से पृथक् और सरल संगीत की दृष्टि से पृथक् रूप से रचनाएं की । यदि उन्होंने कथाओं या आख्यानों पर रचनाएं की तो उनमें भी सामान्य रूप से ही नहीं, बल्कि धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, उपदेशात्मक, मनोरंजनात्मक, अलौकिक, नैतिक, पशुपक्षि सम्बन्धी, शाप-वरदान विषयक, व्यवसाय सम्बन्धी, यात्रा-सम्बन्धी, मन्त्र-तन्त्र-सम्बन्धी, विशिष्ट न्याय विषयक, काल्पनिक एवं प्रकीर्णक आदि विषयों के वर्गीकरण करके तदनुसार सहस्रों-सहस्रों की मात्रा में कथाएं लिख डालीं । ये कथाएं इतनी सरस, मार्मिक एवं लोकप्रिय हुई कि कुछ ने तो देश की परिधि भी लांघ डाली और सुदूर एशिया एवं योरुप में जाकर वहां के साहित्य को कुछ स्थानीय परिवर्तनों के साथ वे उसकी प्रमुख अंग बन गई। af हिन्दी इस प्रकार राजस्थानी भाषा का यह साहित्य वस्तुतः परवर्ती अपभ्रश के बहुमुखी विकास एवं विविध प्रवत्तियों की रसवती कहानी तथा साहित्यिक इतिहास की अक्षयनिधि है साहित्य के इतिहासकार इसे हिन्दी-साहित्य के महामहिम प्रथम अध्याय-आदिकाल के रूप में स्वीकार करते है । यथार्थता यह है कि अपभ्रश साहित्य इतना विशाल, युगानुगामी तथा लोकानुगामी रहा है तथा उसका परिवार इतना विस्तृत रहा है कि हर प्रांत एवं हर बोली वालों ने उसे अपना-अपना नाम देकर तथा अपनी मद्रा लगाकर उसे अपना ही घोषित किया है । विकसनशील लोकभाषा का यही प्रधान गण भी होता है । परवर्ती अपभ्रश के इस रूप एवं परिधि के विस्तार में राजस्थानी कवियों, विशेषतया राजस्थानी जैन कवियों का योगदान कभी भी विस्मत नहीं किया जा सकेगा ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy