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________________ अपभ्रंश के साहित्यकार 3 -डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री प्राचीनकाल में टक्क, भादानक, मालवा और मैदपाट से संयुक्त मरुभूमि न केवल शूरवीरता के लिए रण-भूमि में राजपूताना की आन-बान को गौरव प्रदान करने वाली थी, बल्कि विभिन्न विषयों की साहित्य-सर्जना में भी ऊर्जस्वित स्वरों को मुखरित करने वाली थी । युद्ध-क्षेत्र में रण-बांकुरों की भांति इस प्रदेश के साहित्यकारों में भी वाणी की तेजस्विता थी, जो सतत जन-चेतना को जागृत करती रही है। यहां की भाषा भी सदा ओजस्फुरण वाली रही है। ओज गुण के अनुकूल ही मूर्धन्य वर्गों की प्रधानता इसी प्रवृत्ति की सूचक है। इसी प्रकार से राजस्थानी त तथा प्लुत आदि का प्रयोग अपने निरालेपन को सूचित करते हैं। राजस्थान से अपभ्रश का पूराना सम्बन्ध रहा है। अपभ्रश भारत को पश्चिमोत्तर प्रदेश की बोली थी। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया यह बोली दक्षिण-पूर्व में फैलती गई। इसके प्रसार का सम्बन्ध आभीरों से बताया जाता है। इस देश के कई प्रदेशों में आभीरों का राज्य रह चुका है। नेपाल, गुजरात, महाराष्ट्र और पश्चिमी सीमान्त प्रदेशों में कई प्राभीर राजाओं का राज्य था। आचार्य भरत मुनि ने हिमालय की तराई, सिन्ध प्रदेश और सिन्धु नदी के पूर्ववर्ती घाटी प्रदेश में बसने वाले वनचरों की भाषा को आभीरोक्ति कहा है। राजशेखर अपभ्र श का क्षेत्र सम्पूर्ण राजपूताना, पंजाब (पूर्व में व्यास नदी से पश्चिम में सिन्ध नदी तट का प्रदेश) और भादानक (भदावर) प्रान्त बताते हैं। इस से यह स्पष्ट है कि दसवीं शताब्दी में अपभ्रश राजस्थान में बोली जाती थी। पांचवीं-छठी शताब्दी में यहां प्राकृत भाषा का प्रचलन था। सातवीं शताब्दी से अपभ्रश के स्पष्ट उल्लेख मिलने लगते हैं। दसवीं शताब्दी तक आते आते यह विभिन्न नाम-रूपों को ग्रहण करने लगती है। वस्तुस्थिति यह है कि आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के लिए अपभ्रश एक सामान्य भूमिका रही है। इसलिए कोई क्षेत्रीय शब्द-रूपों के साथ इसे जनी गुजराती कहता है, तो कोई प्राचीन पश्चिम राजस्थानी नाम से अभिहित करता है, तो कोई देशी भाषा या अवहट्ट कहता है। समय-समय पर अलग-अलग नाम विभिन्न स्थिति के सूचक रहे हैं। “कुवलयमालाकहा" के विशेष अध्ययन से पता लगता है कि आठवीं शताब्दी में राजस्थान में अपभ्रश बोल-चाल की भाषा थी। डॉ. ग्रियर्सन तथा अन्य भाषाशास्त्रियों के अनुसार अपभ्रश के क्षेत्रीय रूप ठेठ बोलियां रहीं हैं। अपभ्रंश ने छठी शताब्दी में ही साहित्य का स्थान प्राप्त कर लिया था । अपभ्रश के सुप्रसिद्ध महाकवि स्वयम्भून चमुख, धूर्त, माउरदेव, धनदेव, आर्यदेव, छइल्ल, गोविन्द, शुद्धशील और जिनदास आदि का लेख किया है, जो उन के पूर्ववर्ती कवि हैं। इन में से चतुर्मुख और गोविन्द कृष्णविषयक प्रबन्धकाव्य की रचना कर चुके थे। गोविन्द श्वेताम्बर जैन थे और चतुर्मुख दिगम्बर जैन आम्नाय के थे। अनुमान यह किया जाता है कि गोविन्द सौराष्ट्र के निवासी थे और चतुर्मुख राजस्थान के थे। महाकवि धवल ने कृष्णकथा (हरिवंशपुराण) की रचना चतुर्मुख के प्रबन्धकाव्य को ध्यान में रख कर की थी। इस प्रकार अपनश भाषा और साहित्य से राजस्थान का प्रारम्भ से ही रागात्मक सम्बन्ध रहा है । कविवर हरिषेण राजस्थान के दि. जैन अपभ्रंश-कवियों में कविवर हरिषेण का समय तथा स्थान निश्चित प से ज्ञात है। उन का जन्म राजस्थान के चित्तौड नगर में हुआ था। राजस्थान के ही प्रसिद्ध
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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