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________________ 145 वंश धक्कड (धर्कट) को उन्होंने विभूषित किया था। इस वंश में प्राकृत तथा अपभ्रश के अनेक कवि हुए। कवि ने इस कुल का वर्णन निम्नलिखित शब्दों में किया है:-- इह मेवाड- देसी- जण-संकुलि, सिरिउजहर - णिग्गय- धक्कडकुलि । उन के पिता का नाम गोवर्द्धन था, जो चित्तौड में रहते थे। उन की माता का नाम गणवती था। कविवर हरिषेण चित्तौड में ही रहते थे। किसी कार्य से वे एक बार अचलपूर गए। यह अचलपूर वर्तमान में आबू होना चाहिए। वैसे तो राजस्थान में अचलपुर नाम से कई ग्राम हैं, किन्तु कविवर ने “जिणहर-पउरहो" कह कर जिस अचलपुर का संकेत किया है, वह आजकल का अचलगढ है। यहां पर अनेक जिन-मन्दिर हैं जो इतिहास-प्रसिद्ध हैं। बुध हरिषेण ने अचलपुर में रह कर “धर्मपरीक्षा" की रचना की थी। कवि के ही शब्दों में सिरि-चित्तउडु चइवि अचलउरहो, गयउ णियकज्जें जिणहर-पउरहो । तहिं छंदालंकार - पसाहिय, धम्मपरिक्ख एह तें साहिय ॥ (अन्त्य प्रशस्ति) काव्य की रचना पूर्व-निबद्ध प्राकृत गाथा में जयराम कवि की “धर्मपरीक्षा" के आधार पर की गई थी। कविवर हरिषेण ने 'धर्मपरीक्षा” की रचना पद्धडिया छन्द में वि.सं. 1044 में की थी। कवि ने स्वयं निर्देश किया है: विक्कमणिव परिवत्तिए कालए, गणए वरिस सहसचउतालए । इउ उप्पण्णु भवियजण सुहकरु, डंभरहिय धम्मासय-सायरु ॥ यह काव्य ग्यारह सन्धियों में निबद्ध है। इस में कुल 238 कडवक है। पूर्ववर्ती कवियों में चतुर्मुख, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, सिद्धसेन और जयराम का उल्लेख किया गया है। काव्य में मनोवेग और पवनवेग के रोचक संवाद के माध्यम से जैनधर्म की उत्कृष्टता निरूपित की गयी है। अपभ्रंश में इस रचना के पश्चात् भट्टारक श्रुतकीर्ति कृत "धर्मपरीक्षा" की रचना हुई जिसका रचना-काल वि. सं. 15 5 2 कहा गया है। यह काव्य कविवर हरिषेण की “धर्मपरीक्षा" के आधार पर लिखा गया। कथानक का ही नहीं, वर्णन का भी अनगमन किया गया है। अतएव दोनों में बहुत कुछ साम्य लक्षित होता है। यद्यपि अद्यावधि इस को एक ही अपूर्ण प्रति उपलब्ध है, किन्तु उसके आधार पर डा. जैन ने उल्लेख किया है कि प्रस्तुत कृति का कथानक हरिषेण कृत दसवीं सन्धि के छठे कडवक तक पाया जाता है। अनन्तर उसी सन्धि में ग्यारह कडवक और हैं, फिर ग्यारहवीं सन्धि में सत्ताईस कडवकों की रचना है, जिन में श्रावकधर्म का उपदेश दिया गया है। यह भाग श्रुतकीर्ति कृत "धर्मपरीक्षा" से विच्छिन्न हो गया है। सम्भवतः वह सातवीं सन्धि में ही पूरा हो गया होगा। कविवर हरिषेण की “धर्मपरीक्षा" निःसन्देह मनोरंजक है। पं. परमानन्द शास्त्री के शब्दों में 'वह पौराणिक कथानकों के अविश्वसनीय तथा असम्बद्ध चित्रण से भरपूर है और उन आख्यानों को असंगत बतलाते हुए जैनधर्म के प्रति आस्था उत्पन्न की गई है"। किन्तु उसमें पुराण ग्रन्थों के मूल वाक्यों का कोई उल्लेख नहीं हैं। 1. डा.हीरालाल जैन :श्रुतकीति और उन की धर्मपरीक्षा, अनेकान्त में प्रकाशित लेख, अनेका ___ कान्त, वर्ष 11, किरण 2, पृ. 106 । 2. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह, पृ. 52 ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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