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________________ 140 चर्यापद तो परवर्ती- साहित्य के लिये बहुत ही अमुल्य-निधि सिद्ध हुए । के पद-साहित्य के विकास की कड़ी सहज में ही जोड़ी जा सकती है । चौथी काव्य प्रवृत्ति शौर्य एवं प्रणय संबंधी है, जो अपभ्रंश दोहा-साहित्य में प्राचीन काल से चली आ रही है । डा. हीरालाल जैन ने इस प्रवृत्ति को भावनात्मक मुक्तक प्रवृत्ति की संज्ञा प्रदान की है। उन्होंने इस प्रवृत्ति के जन्मदाता राजस्थानी चारणया भाट कवियों को बताया है । वस्तुतः इस प्रवृत्ति का दर्शन हमें महाकवि कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' नामक नाटक की उन उक्तियों में मिलता है, जिनमें विरही पुरुरवा अपने हृदय की मार्मिक दशा को व्यक्त करता है। पुरुरवा देखता है कि सामने से कोई हंस मन्द गति से चला जा रहा है । हंस को यह अलसगति कहां से मिली ? उसे सहसा ही उर्वशी का जाता है और वह कह उठता है: --- जघनभराल सगमन स्मरण आ इन्हीं पदों से हिन्दी रे रे हंसा कि गोइज्जइ गइ अणुसारें मई लक्खिज्जइ । कई पई सिक्खि ए गइ लालस सा पई दिट्ठी जणभरालस ॥ ( विक्रमोर्वशीय नाटकम् 4132 ) पुरुरवा हंस- युवा को हंसिनी के साथ प्रेमरस के साथ क्रीडा करते हुए देखकर उर्वशी के विरह से भर जाता है और उसके मुख से निकल पड़ता है, काश, मैं भी हंस होता 1. एक्aarभवढि अगुरुअरपेम्मरसें । सरे हंसजुआओ कीलइ कामरसें (विक्रमोर्वशीय 4141 ) यहां यह स्मरणीय है कि उक्त पद्यों की अभिव्यञ्जना शैली लोकगीतों के अतिनिकट है । उपर्युक्त पद्य अडिल्ल छन्द में लिखा गया है, जो अपभ्रंश का अपना छंद है । अतः यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है कि अपभ्रंश की प्रबन्ध-पद्धति के विकास में लोकगीतों का प्रमुख स्थान रहा है । कालिदास के प्रणय - मुक्तकों के उपरान्त दूसरी मोतियों की लडी हमें आचार्य हेमचन्द्र के व्याकरण- दोहों में मिलती है । जहां कालिदास के मुक्तकों में टीस, वेदना और कसक है वहां हमचन्द्र के दोहों में शौर्य वीर्य का ज्वलन्त तेज, युवक-युवतियों के उल्लास, प्रणय- निवेदन के वैविध्य एवं रतिभावों के गाम्भीर्य दृष्टिगोचर होते हैं । इसमें संदेह नहीं कि हेमचन्द्र के उन अपभ्रंश-दोहों में लोक-जीवन का तरल चित्रण मिलता । प्रणय के भोलेपन और शौर्य की प्रौढी की झलक अद्वितीय है । हेमचन्द्र द्वारा उदाहृत इन दोहों में मात्र रमणी के विरह में कुम्हलाने वाला प्रेम या संयोग की कसौटी पर कनकरेखा की तरह चमकने वाला प्रेम दिखलाई नहीं देता, किन्तु प्रेम का वह रूप दृष्टिगोचर होता है, जिसमें प्रिय अपने शौर्य और पराक्रम-प्रदर्शन द्वारा अपनी वीरता से नायिका के हृदय को जीत लेता है । यहां शृंगार-मिश्रित वीर रस के कुछ पद उद्धृत किये जाते हैं :-- सहं देक्खु अम्हारा कंतु । अइमत्तहं चत्त कुसहं गयकुंभई दारंतु ॥ ( सिद्धम. 45 ) अर्थात् जो सैकडों युद्धों में बखाना जाता है, उस अतिमत्त त्यक्तांकुश गजों के कुम्भस्थलों को विदीर्ण करने वाले मेरे कन्त को देखो । नागरी प्रचारिणी पत्रिका - अंक 50 पृष्ठ 108
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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