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पतिव्रता राजल, पंचवर्णा, पवनांजना, विधुवन और नैन-काव्य-संग्रह जैसी अभिराम काव्य कृतियों के माध्यम से स्वधर्म और स्वभाषा के प्रति जो श्रद्धा-सेवा अर्पित की है, वह स्तत्य है। कवि ने द्विवेदीकालीन इतिवत्तात्मकता को उसकी समस्त सरसता और रोचकता के साथ जीवित रवखा है। इस संदर्भ में उनका खण्ड-काव्य 'पवनांजना' विशेष रूप से उल्लेख्य है। सती अंजना के महिमामय चरित्र को उजागर करने वाली यह छोटी सी प्रबंधात्मक काव्य रचना हिन्दी साहित्य की एक सरस और प्रभावी कविता है। यद्यपि कवि ने यत्र-तत्र वर्णनों में पारम्परिक प्रतीकों और शैली को अपनाया है, पर प्रस्तुति इतनी सुगठित और ललित है कि वह नवता का रमणीय आनन्द भी प्रदान करती चलती है। काव्य में अंजना का सौंदर्य-वर्णन हो अथवा विरह-वर्णन, दोनों ही स्थितियों में कवि ने पारम्परिक शैली का निर्वाह किया है। प्रकृति के वे सारे उपादान जो संयोग में सुख कर लगते हैं, विरह काल में असीम दःख के कारण बन जाते हैं। विरहिणी अंजना की दशा भी वैसी ही है जैसी सूर, जायसी और बिहारी की नायिकाओं की रही है । यथा--
"कोकिल का स्वर कट लगता था जला रहे थे पुष्प पलाश मकूलित आम्र टीसता मन को, विष-सा दाहक था मधमास । ज्येष्ठ मास की ल सम उसको तपा रही थी शीत बयार, कर्णपुटों को कटु लगती थी मधुर मधुकरों की गुंजार ।"
---(पवनांजना, पृ. 57) 'पवनांजना कर्मवाद पर आधारित काव्य-रचना है। प्रथम रात्रि को पति की स्नेहानुकम्पा से वंचित रह जाना, बारह वर्षों तक वियोग की अग्नि में जलते रहना. फिर प्रियसमागम का सूख उपलब्ध होना, गर्भवती होने के पश्चात् सास-ससुर और माता-पिता के घर से लांछित होकर निकाला जाना, अन्त में प्रियतम का स्थायी रूप से मिल जाना--ये सब अंजना के लिए कर्म के ही खेल थे। यथा--
कर्म सत्र से बंधे हए सब कठपुतली से करते खेल. किसके लिए रुदन व्याकुलता किसके लिए शत्रता मेल ? रे मन निस्पृह होकर झेलो, जो कुछ है कर्मों का खेल, है प्रतिरोध अशक्त, अतः मन कैसा मीन और क्या मेष ।"
--(वही, पृ. 51)
डा. नरेन्द्र भानावत मानवतावादी विचारधारा के कवि हैं, जिनकी रचनाओं में आशा, विश्वास, कर्म, पुरुषार्थ और मानवादर्श के तत्वों का जीवन्त समुच्य मिलता है । अनेक साहित्यिक और धार्मिक ग्रंथों के लेखक-संपादक डा. भानावत की दो काव्य पुस्तके उल्लेख नीय हैं ----"एक -पादमी, मोहर और कूर्सी" तथा दूसरी "माटी-कुंकुम" | "ग्रादमी, मोहर. और कर्सी" में उनकी नयी काव्य शैली में लिखी गई यथार्थपरक रचनाएं संग्रहीत हैं और "माटी कंकम" में उनकी मानवतावादी रस-प्रधान रचनाएं संकलित हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने करुणा, प्रेम, श्रम, मानवीय गरिमा और धामिक रूढ़ियों की निरर्थकता को सुन्दर ढंग से रूपायित किया है:--
यदि नहीं पांव की धलि भाल पर चढ़ा सके, यदि नहीं किसी की पीड़ा को उर बसा सके, श्मशानों में जलने वाली चीत्कारों को,