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________________ 170 5. सिद्धचक्र श्रीपाल रास 6. राणकपुर स्तवन 7. तीर्थमाला स्तवन 8. ऋषभ रास एवं भरत बाहुबलि पवाडा 9. नैमिनाथ नवरस फाग 10. स्थूलिभद्र कवित्त मांडण सेठ मेहा कवि महा कवि गुणरत्नसूरि संवत 1498258 पच संवत् 1499 संवत् 1499 15वीं सोमसुन्दरसूरि सोमसुन्दरसूरि 1481 1481 मध्यकाल:-- राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल काफी लम्बे (400 वर्षों) समय का है और इस काल में रचनायें भी बहुत अधिक रची गई हैं। शताधिक जैन कवि इस समय में हो गये हैं और उनमें से कई कवि ऐसे भी हैं जिन्होंने बहुत बडे परिमाण में साहित्य निर्माण किया है। इसलिये इस काल के सब जैन कवियों और उनकी रचनाओं का परिचय देना इस निबन्ध में संभव नहीं है। 16वीं शताब्दी से मध्यकाल का प्रारम्भ होता है और उस शताब्दी की रचनायें तो कम हैं, पर 17वीं मौर 18वीं शताब्दी तो राजस्थानी साहित्य का परमोत्कर्ष काल है, अतः इस समय में राजस्थानी जैन साहित्य का जितना अधिक निर्माण हमा, अन्य किसी भी शताब्दी में नहीं हुआ। 19वीं शताब्दी से साहित्य निर्माण की वह परम्परा कमजोर व क्षीण होने लगती है। उत्कृष्ट कवि भी 17वीं व 18वीं शताब्दी में ही अधिक हुये हैं। गद्य में रचनायें तो बहुत थोड़े विद्वानों ने ही लिखी हैं। बहत सी रचनायें अज्ञात कवियों की ही हैं और ज्ञात कवियों की रचनाओं में भी किन्हीं में रचनाकाल और किसी में रचना स्थान का उल्लेख नहीं मिलता है। 16वीं शताब्दी में तो रचना स्थान का उल्लेख थोड़े से कवियों ने किया है। 17वीं व 18वीं शताब्दी के अधिकांश जैन कवियों ने रचनाकाल के साथ-साथ रचना स्थान का भी उल्लेख कर दिया है। अन्त में जिन व्यक्तियों के अनुरोध से रचना की गई, उन व्यक्तियों का भी उल्लेख किसी-किसी रचना में पाया जाता है। कवियों ने अपनी गुरु परम्परा का तो उल्लेख प्रायः किया है पर अपना जन्म कब एवं कहां हुआ, माता पिता का नाम क्या था, वे किस वंश या गोत्र के थे, उनकी दीक्षा कब व कहां हुई, शिक्षा किससे प्राप्त की और जीवन में क्या क्या विशेष कार्य किये तथा स्वर्गवास कब एवं कहां हया, इन ज्ञातव्य बातों की जानकारी उनकी रचनामों से प्रायः नहीं मिलती। इसलिये साहित्यकारों की जीवनी पर अधिक प्रकाश डालना संभव नहीं। उनकी रचनाओं को ठीक से पढ़े बिना उनकी आलोचना करना भी उचित नहीं है। इसलिये प्रस्तुत निबन्ध में कवियों की संक्षिप्त जानकारी ही दी जा सकेगी। मध्यकाल की जैन रचनाओं में चरित काव्य जिस 'रास-चोपाई' प्रादि की संज्ञा दी गई है, ही अधिक रचे गये हैं। 14-15वीं शताब्दी तक के अधिकांश रास छोटे-छोटे थे। 16वी शताब्दी में भी उनका परिमाण मध्यम सा रहा, पर 17वीं व 18वीं शताब्दी में तो बहुत बडे-बडे रास रचे गये, जिनमें से कई रास तो 8-10 हजार श्लोक परिमित भी हैं। मध्यकाल में रास के स्वरूप और उसकी शैली में भी काफी परिवर्तन हो गया है। दोहा और लोकगीतों की देशियों का प्रयोग ही मध्यकाल के रासों में अधिक हमा है। किसी-किसी रास में चौपई छन्द का प्रयोग होने से उसका नाम चतुष्पदी या चौपई रखा गया है पर आगे चल कर जब वह संज्ञा चरित काव्यादि के लिये रूढ़ हो गई तो चौपई छन्द का प्रयोग न होने वाली रचनात्रों को भी चौपई के नाम 'प्रसिद्ध कर दिया। एक ही रचना को किसी ने चौपई के नाम से और किसी ने रास के नाम से संबोधित किया है अर्थात फिर रास और चौपई में कोई खास भेद नहीं रह गया और चरित काव्य के लिये इन दोनों नामों का खल कर प्रयोग होने लगा। 'वेलि' संज्ञा काव्यों का निर्माण भी 16वीं से प्रारम्भ होता है और सबसे अधिक वेलियां 17-18वीं सदी में बनाई गई हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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