SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 262 की लीक से हटकर कमला जैन 'जीजी' ने 'अग्निपथ' में अपने ही बीच घमती-फिरती सती साध्वा उमरावकुंवर जी 'अर्चना' को प्रकारान्तर से नायिका के रूप में खड़ा किया है और जानकी के रूप में लेखिका स्वयं प्रकट हुई है। यह उपन्यास वात्सल्य, करुणा और अध्यात्म भावों से लबालब भरा है। जीवनचरित को उपन्यास के रूप में प्रस्तुत करने का यह प्रयत्न बड़ा सफल बन पड़ा है। नवीन औपन्यासिक शैली में न सही, पर कथा की मनोरंजकता और औत्सुक्य-वृत्ति का निर्वाह करते हुए राजस्थान के कथाकारों ने कई सून्दर चरिताख्यान प्रस्तुत किए है। इन कथाकारों में बम्बोरा के श्री काशीनाथ जैन का नाम विशेष उल्लेखनीय है । इनके पचास के लगभग चरिताख्यान प्रकाशित हए हैं। जैन संत अपने प्रतिदिन के चार्तमास कालीन प्रवचनो के अन्त में सामान्यतः धारावाही रूप में कोई न कोई चरिताख्यान प्रस्तुत करते हैं। ये चरिताख्यान यो तो परम्परागत ही होते हैं पर समसामयिक जीवन-प्रसंगों और समस्याओं का उनसे संबंध जोड़कर व उसे अधिक रोचक. प्रेरक और मार्मिक बना देते हैं। धारावाही रूप से कह गए ऐसे चरिताख्यानों के कई संकलन प्रकाशित हए हैं, उनमें आचार्य श्री जवाहरलालजी म. सा. तथा जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म.सा. के पाख्यान विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। श्री जवाहरलाल सा. क चरिताख्यानों में सूबाहुकूमार, सती राजमती, सती मदनरेखा, रुक्मणि विवाह, अजना, शालिभद्र चरित, सुदर्शन चरित, सेठ धन्ना चरित, पाण्डव चरित, राम वन गमन, हरिश्चन्द्र-तारा अादि उल्लेखनीय हैं । (ग) कहानी, लघ कथा, प्रेरक प्रसंग, गद्य काव्यः--कहानी आज गद्य की सबसे लोकप्रिय विधा है। वह सतत विकासोन्मुख और प्रयोगशील रही है। आधुनिक हिन्दी कहानी क आविभाव से पूर्व हमारे यहां कहानी की एक सूदीर्घ परम्परा रही है। दार्शनिक और तात्विक सिद्धान्तों की विवेचना के लिए कथाओं का प्राधार लिया जाता रहा है। ये कथाएं रूपकात्मक, ऐतिहासिक, पौराणिक, लौकिक आदि रूपों में आज भी मनोरंजन और उपदेश का माध्यम बनी हुई हैं। आगम ग्रन्थों की टीका, निर्यक्ति, भाप्य, चणि, अवणि आदि में इनके दर्शन होते हैं। जैन कथा साहित्य का यह विशाल भण्डार आधनिक कथाकारों के लिए विशेष प्रेरणास्रोत बना हया है। यह अवश्य है कि प्राधुनिक जैन कथाकारों ने प्राचीन कथा को मूलाधार बनाते हुए भी उसके शिल्प तन्त्र में परिवर्तन किया है। काल्पनिक और अलौकिक घटनामों को जीवन की यथार्थ परिस्थितियों का धरातल और बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक आधार दिया है। घटनाओं को चरित्र-विश्लेषण और मानसिक द्वन्द्व से सम्पक्त किया है। सक्षेप में दैववाद एवं आकस्मिक संयोग के प्रति अाग्रह कम करते हुए स्वाभाविकता, यथार्थवादिता, विचारात्मकता, पुरुषार्थवाद और कार्य-कारण श्रृंखला पर अधिक बल देने का प्रयत्न किया है। मोटे तौर से कहानी साहित्य की प्रवृत्तियों को इस प्रकार विश्लेषित किया जा सकता (i) संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश परम्परा से प्राप्त कथाओं को सरल सुबोध भाषा और रोचक शैली में आधुनिक ढंग से प्रस्तुत करने की एक मुख्य प्रवृत्ति उभर कर सामने आयी है। मनि महेन्द्रकुमार जी 'प्रथम' की जैन कहानियां भाग 1 से 25, श्री मधुकर मुनि की "जैन कथामाला" भाग 1 से 12, श्री रमेश मनि की 'प्रताप कथा कौमदी' भाग 1 से 5, श्री भगवती मनि 'निर्मल' की 'मागम युग की कहानियां' भाग 1--2, श्री देवेन्द्र मुनि की 'महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं', पुष्कर मुनि की 'जैन कथाएं', माग 1 से 5 इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy