SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्व चार पीढ़ियां टोडारायसिंह में समाप्त हुई थीं। इनकी तीन रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं। दिलाराम विलास इनकी सभी लघु कृतियों का संकलन है तथा प्रात्म द्वादशी में प्रात्मा का वर्णन हुआ है। संवत् 1768 में दिलाराम विलास की रचना पूर्ण हुई थी। तीसरी रचना व्रतविधानरासौ है जिसकी रचना संवत् 1767 में समाप्त हुई थी। तीनों ही रचनायें अभी तक अप्रकाशित हैं। कवि की भाषा परिमार्जित है तथा उस पर हाडोती का प्रभाव है। (26) मुनि शुभचन्द्रः-- मुनि शुभचन्द्र भ. जगत्कीर्ति के संघ में मुनि थे । भट्टारकों के संघ में प्राचार्य, मुनि, ब्रह्मचारी आदि सभी रहते थे। मनि शुभचन्द्र इसका प्रमाण है। मनि शभचन्द्र हाडौती प्रदेश के कुजडपुर में रहते थे। वहां चन्द्रप्रभ स्वामी का चैत्यालय था। उसी मन्दिर में इन्होंने होली कथा को निबद्ध किया था। यह रचना भाषा की दृष्टि से अच्छी कृति है। इसका रचना काल सं. 1755 है। (27) नथमल बिलाला (संवत् 1822):-- नथमल बिलाला यद्यपि मूल निवासी आगरा के थे लेकिन पहिले भरतपुर और फिर हिण्डौन आकर रहने लगे थे। उनके पिता का नाम शोभाचन्द्र था। इन्होंने सिद्धांतसार दीपक की रचना भरतपुर में सुखराम की सहायता से तथा भक्तामर स्तोत्र की भाषा हिण्डौन में संवत् 1829 में अटेर निवासी पाण्डे बालचन्द्र की सहायता से की थी। उक्त दोनों रचनात्रों के अतिरिक्त कवि की निम्न रचनाएं और उपलब्ध हो च की हैं:--- जिणगुणविलास (1822) जीवन्धर चरित (1835) अष्टाहि नका कथा नागकुमार चरित्र (1834) जम्बूस्वामी चरित्र नथमल प्रतिभा सम्पन्न कवि था इसलिये इसकी रचनाओं में सहज भाषा मिलती है। कवि ने सभी रचनाओं स्वान्तः सुखाय निबद्ध की थी। कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया-- नन्दन सोभाचन्द को नथमल अतिगनवान। गोत बिलाला गगन में उग्यो चन्द समान । नगर आगरो तज रहे, हीरापुर में प्राय । करत देखि उग्रसैन को कीनो अधिक सहाय॥ (28) प्रचलकीति:-- ये 18वीं शताब्दी के कवि थे। अब तक इनकी विषापहार स्तोत्र भाषा, कर्मबत्तीसी एवं रविव्रतकथा रचनायें प्राप्त हो चकी हैं। कर्मबत्तीसी को इन्होंने संवत् 1777 में समाप्त की थी। ये भद्रारकीय परम्परा के सन्त थे। (29) थानसिंहः-- कविवर थानसिंह सांगानेर के रहने वाले थे। इनकी जाति खण्डेलवाल एवं गोत्र ठोलिया था। सूबद्धिप्रकाश की ग्रन्थ प्रशस्ति में इन्होंने आमेर, सांगानेर तथा जयपुर का वर्णन लिखा है। जब इनके माता-पिता जयपुर में अशान्ति के कारण करोली चले गये थे तब भी
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy