________________
417
(3) आकारान्त -- 'काना' दर्शक चिन्हः -- यह ग्रक्षर के ग्रागे की मात्रा '' छूट गई हो वहां अक्षर के ऊपर दी जाती है ।
( 4 ) प्रत्याक्षर वाचन दर्शन चिन्ह: -- यह चिन्ह लिखे गए अक्षर के बदले दूसरा अक्षर लिखने की हालत में लगाया जाता है । जैसे 'श' के बदले 'ष', 'स' के बदले 'श', 'ज' के बदले 'य', 'ष' के बदले 'क्ष' आदि । यतः -- सतु शत्रु, खट् षट् जज्ञ यज्ञ, जात्रा यात्रा आदि ।
(5) पाठ परावृत्ति दर्शक चिन्ह: -- अक्षर या वाक्य के उलट-पुलट लिखे जाने पर सही पाठ बताने के लिए अक्षर पर लिख दिया जाता है । यतः -- ' वनचर' के बदले 'वचनर' खाल गया हो तो वचनर शब्द पर चिन्ह कर दिया जाता है ।
( 6 ) स्वर सन्ध्यंश दर्शक चिन्ह: -- यह चिन्ह सन्धि हो जाने के पश्चात् लुप्तस्वर को बताने वाला है । इन चिन्हों को भी ऊपर और कभी नीचे व अनुस्वार युक्त होने पर नु स्वार सहित भी किया जाता है । यतः - ssi sss इत्यादि ।
(7) पाठ भेद दर्शक चिन्ह: -- एक प्रति को दूसरी प्रति से मिलाने पर जो पाठान्तर, त्यिन्तर हो उसके लिए यह चिन्ह लिख कर पाठ दिया जाता है ।
( 8 ) पाठानुसंधान दर्शक चिन्ह: -- छूटे हुए पाठ को हांसिए में लिखने के पश्चात् किस पंक्ति का वह पाठ है यह अनुसंधान बताने के लिए प्रो. पं. लिख कर प्रोली, पंक्ति का नम्बर दे दिया जाता है ।
( 9 ) पदच्छेद दर्शक चिन्ह: -- प्राजकल की तरह वाक्य शब्द एक साथ न लिख कर आगे अलग-अलग अक्षर लिखे जाते थे, अतः शुद्ध पाठ करने के लिए ऊपर खड़ी लाईन का चिन्ह करके शब्द अक्षर पार्थक्य बता दिया जाता था ।
( 10 ) विभाग दर्शक चिन्ह: -- ऊपर दिए गए सामान्य पदच्छेद चिन्ह से डबल लाइन देकर सम्बन्ध, विषय या श्लोका की परिसमाप्ति पर यह लगाया जाता है ।
( 11 ) एक पद दर्शक चिन्ह: -- एक पद होने पर भी भ्रान्ति न हो इसलिए दोनों ओर ऊपर खड़ी लाइन लगा देते थे । यतः - - ' स्यात्पद' एक वाक्य को कोई स्यात् और पद अलगअलग न समझ बैठे इसलिए बाक्य के दोनों ओर इसका प्रयोग होता था ।
( 12 ) विभक्ति वचन दर्शक चिन्ह:- :--यह चिन्ह अंक परक है । सात विभक्ति और संबोधन मिलाकर आठ विभक्तियों को तीन वचनों से संबद्ध - सूचन करने के लिए प्रथमा का द्विवचन शब्द पर 12, अष्टमी के बहुवचन पर 83 प्रादि अंक लिख कर निर्भ्रान्ति बना दिया जाता था । संबोधन के लिए कहीं कहीं 'है' भी लिखा जाता था ।
( 13 ) अन्वय दर्शक चिन्ह: - - यह चिन्ह भी विभक्ति वचन को चिन्ह की भांति क लिख कर प्रयुक्त किया जाता था। ताकि संशयात्मक वाक्यों में अर्थ भ्रान्ति न हो, श्लोकों में पदों का अन्वय भी अंकों द्वारा बतला दिया जाता था ।