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डोरा:--ताड़पत्रीय युग में स्मृति योग्य पंक्ति, पाठ, अधिकार, अध्ययन, उद्देश्य आदि की परिसमाप्ति स्थान में बारीक डोरा पिरो कर बढ़ा हया बाहर छोड़ दिया जाता था । जैसे आजकल फ्लेग चिन्हित किया जाता है और उससे ग्रन्थादि का प्रसंग खोजने में सुविधा होती है, वैसे ही ताडपत्रीय युग की यह पद्धति थी।
पुस्तक संशोधन के संकेत चिन्ह :
जिस प्रकार लेखन और संशोधन में पूर्ण विराम, अर्द्ध विराम, अल्प विराम, प्रश्नविराम आश्चर्यदर्शक चिन्ह, अर्थद्योतक चिन्ह, छन्द समास द्योतक चिन्ह, शंकित पाठ द्योतक चिन्हादि प्रचलित हैं, पूराकालीन जैन विद्वानों ने भी लेखन सौष्ठव को ध्यान में रख कर विविध चिन्हों का प्रयाग किया है। वे चिन्ह कब और किस स्थिति में प्रयुक्त होते थे ? उसका यहां निर्देश किया जाता है।
शोध के
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इन चिन्हों की पहचान इन नामों से कीजिए:--
(1) पतितपाठ दर्शक चिन्ह:--लेखकों की असावधानी से छूटे हुए स्थान पर यह चिन्ह करके हांसिये पर त्रुटक पाठ लिखा जाता है और दोनों स्थान में चिन्ह कर दिए जाते हैं।
(2) पतित पाठ विभाग दर्शक चिन्हः- यह चिन्ह छूटे हुए पाठ को बाहर लिखने के उभय पक्ष में दिया जाता है जिससे अक्षर या पाठ का सेल-भेल न हो जाय। इसके पास 'नो' या 'पं.' करके जिस पंक्ति का हो नम्बर दिया जाता है।