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________________ 329 आपके प्रवचनों में आत्म साधना, सेवा, व्यसन मुक्ति और विकार विजय पर विशेष बल रहता है। श्रापसे उद्बोधित होकर समाज में अस्पृश्य समझे जाने वाले बलाई जाति के हजारों परिवारों ने व्यसनमुक्त, शुद्ध सात्विक संस्कारी जीवन जीने का व्रत लिया और ये 'धर्मपाल' नाम से सम्बोधित किए जाने लगे । आपकी व्याख्यान शैली रोचक और बुद्धिजीवियों को प्रभावित करने वाली होती है । अपने व्याख्यान का प्रारम्भ आप भी तीर्थ करों की स्तुति से करते हैं और उसी को माध्यम बनाकर आत्मतत्त्व को छूते हुए परमात्म दर्शन की गहराइयों में उतरते चलते हैं । व्याख्यान के अन्त में कोई न कोई चरिताख्यान धारावाही रूप से अवश्य चलता है। ये चरिताख्यान घटनाओं की मात्र विवृत्ति न होकर आधुनिक जीवन समस्याओं के समाधान कारक प्राख्यान होते हैं । भाषा की प्रांजलता, भावों की तीव्रता और शैली की प्रवाहमयता आपके व्याख्यानों की मुख्य विशेषता है । आपके व्याख्यानों के अब तक कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 'पावस - प्रवचन' नाम से पांच भागों में आपके जयपुर के चातुर्मास कालीन व्याख्यान संग्रहीत हैं । 'ताप और तप' में मंदसौर के 'शान्ति के सोपान' में ब्यावर के तथा 'आध्यात्मिक वैभव', 'आध्यात्मिक आलोक' में बीकानेर व्याख्यान संग्रहीत है। 'समता दर्शन और व्यवहार' प्रापकी ग्रन्य उल्लेखनीय कृति है जिसमें समता सिद्धान्त का दर्शन और व्यवहार के धरातल पर विवेचन प्रस्तुत करते हुए समतामय प्राचरण के 21 सूत्नों और साधक के तीन चरणों समतावादी, समताधारी और समतादर्शी का स्वरूप निरूपित किया गया है । अन्त में समता समाज की रूपरेखा और उसके निर्माणों के लिए सक्रिय होने की प्रेरणा दी गई है। प्रापकी व्याख्यान - विवेचन शैली का एक उदाहरण इस प्रकार है : -- 'ताप से अगर मुक्ति पानी है तो उसका उपाय है तप । तप करोगे तो ताप से छुटकारा मिल जायेगा । पर-पदार्थों का मोह और विकारों की अग्नि ग्रन्तचतना को ताप से जलाती है क्योंकि उनमें फंसे रहने के कारण आत्मा की दशा लकड़े की सी बनी रहती है, किन्तु तप उस दशा को बदलता है, उसमें फौलादी शक्ति भर कर उसे सोने की सी उज्ज्वल बनाता है । तप में आत्मा जब तपती है तो उसका सोना तप कर अपना चरम रूप प्रकट करता है । ताप से आत्मा काली होती है और तप से वह निखरती है ।' ( ताप और तप से उद्धृत, पृष्ठ-10 ) 7. उपाध्याय श्री अमर मुनि - आपका व्यक्तित्व सर्वतोमुखी प्रतिभा का धनी है । आप ओजस्वी वक्ता, ख्याति प्राप्त लेखक, सफल कवि, गूढ़ विवेचक और विद्वान् संत हैं । आपक अध्ययन और अनुभव का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । जैन, बौद्ध और वैदिक तीना परम्पराओं का आपन गम्भीर अध्ययन किया है । आप व्यवहार में जितने विनम्र और मधुर हैं विचारों में भी उतने ही उदार और सहिष्णु हैं । कविजी का मुख्य कार्य क्षेत्र आगरा रहा है । सन्मति ज्ञान पीठ के माध्यम से आपने अब वीरायतन योजना का साकार रूप देने के लिए आपने राजस्थान से भी प्रापका निकट का संपर्क रहा है और आपने साहित्य की अमूल्य सेवा की है । अपना क्षेत्र राजगृही बनाया है । कई चातुर्मास इस क्षेत्र में किये हैं । कवि श्री मूलतः साहित्यकार हैं । पद्य और गद्य दोनों क्षेत्रों में श्रापकी लेखनी अविराम चलती रही है । विरूप में तो आप इतने प्रसिद्ध हैं कि कवि जी महाराज के रूप में ही
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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