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________________ 302 मरुधर केसरी ने विविध छंदों में अनेक काव्य रचनाएं की हैं। उनकी प्रमुख कृतियां हैं-बुध विलास, यशवन्त चरित्र, साध्वी रत्नकुंवर, कविता-कुंज, मधुर स्तवन-बत्तीसी, मनोहर मंगल प्रार्थना, भक्ति के पुष्प, मनोहर फूल, मधुर शिक्षा, संकल्प विजय, मधुर दृष्टान्त मंजूषा आदि। 'संकल्प विजय' में उनके पांच स्फुट काव्य संगृहीत हैं, जिनमें चेलना, समरसिंह, नंदशाह, स्थूलिभद्र और शीलसिंह के चरित्रों को उजागर किया गया है। काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से 'स्थूलिभद्र' काफी सशक्त और रमणीय रचना है जिसमें स्थान-स्थान पर उनका कला-प्रिय, कवि-रूप उभर कर आया है। अनुप्रास मरुधर-केसरी का प्रिय अलंकार है। इसकी एक छटा देखिए-- भव जल तरणी करणी वरणी शांत सूधा रस झरनी है। वेतरणी हरणी अग जरनी गुरु भक्ति चित्त भरनी है ।। --(वही, पृ. 8) मरुधर केसरी जी ने अनेक छंदों का प्रयोग किया है-जैसे दोहा, चौपाई, छप्पय, कंडलिया ग्रादि । मख्य रूप से इनकी भाषा राजस्थानी है। विहारी के दोहों की इनके दोहे भी गंभीर भावों से भरे हैं। दृष्टान्तः उनके 'वचन महिमा' से संबंधित दोहे देखे जा सकते हैं। एक दोहे में वे वचन की तुलना सधवा के सिन्दूर से करते हैं। जिस प्रकार सिंदूर सधवा के ललाट की अक्षर शोभा है, उसी प्रकार वचन दढ़-प्रतिज्ञ लोगों की अक्षर शोभा है। सधवा सिंदूर नहीं त्यागती, उसी प्रकार वचन का परित्याग भी सत्पुरुष नहीं करते । यथा-- गुनिजन, मुनिजन, वीरजन, वचन विसारे नांय । जिमि सधवा सिंदूर की, टीकी भाल सुहाय ।। --(मधुर शिक्षा, पृ. 16) श्री गणेश मुनि शास्त्री स्थानकवासी कवि-समाज के एक सम्माननीय हस्ताक्षर हैं जिन्होंने प्राचीन और अधुनातन काव्य-शैलियों का सफल प्रयोग करके अपने कौशल का सुन्दर परिचय दिया है। जैन-जगत् में वे एक गढ़ चिन्तक, मध र व्याख्यानी और सहृदय कवि के रूप में विख्यात हैं। वे सन्त पहले हैं, कवि बाद में। उनका संत-रूप जितना दिव्य है, कवि रूप भी उतना ही भव्य है। उनकी अपनी मान्यता है कि संत हुए बिना कोई कवि नहीं हो सकता। संत हृदय अर्थात् सदाशयता, शालीनता, सच्चरित्रता और मानवता से युक्त हृदय ! सत्साहित्य का सजन संत-कवि ही कर सकते हैं। अभद्र साहित्य का निर्माण करने वाले संत हो ही नहीं सकते। (दे. डा. रामप्रसाद द्विवेदी कृत श्री गणेश मुनि शास्त्री : साधक और सर्जक, पृ. 111) इनकी प्रमुख काव्य रचनाएं हैं--गणेश गीताजंलि, संगीत-रश्मि, गीत-झंकार, गीतों का मधुवन, महक उठा कवि-सम्मेलन, वाणी-वीणा, सुबह के भूले और विश्व ज्योति महावीर (प्रबंध)। सीधी और सरल भाषा का उन्होंने सदैव प्रयोग किया है, क्योंकि उनकी मान्यता है कि इससे जन-मानस भाषा के जटिल शब्द-जाल में न उलझ कर कविता की आत्मा से सीधा संबंध स्थापित कर सकेगा। जीवन और जगत् की निस्सारता के बारे में उनके ये सूक्त्यात्मक विचार कितने जीवन्त हैं:-- (अ) “भाग्यवान इतरा मत इतना, नहीं समय रहता इक सा। देख सूर्य के तेजस्वी की होती दिन में तीन दशा ॥" -~(वाणी-वीणा, पृ. 43)
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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