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है। डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी इसे गेय-काव्य समझते हैं। इसमें एक ओर सरल मुहावर वाली भाषा है और दूसरी ओर ऊहात्मक अलंकृत शैली भी है।
जहां तक अपभ्रश चरित-काव्यों के वस्तुवर्णन का सम्बन्ध है, उसमें यथासंभव पुराणकाव्य और लोकरूढियों का वर्णन है, प्रकृति-चित्रण , देश-नगर-वर्णन, नदी-वन और सरोवर चित्रण, प्रातः काल सूर्य-चन्द्र-सायंकाल का वर्णन, विवाह, भोजन, यद्ध, स्वयंवर, नारी, जलक्रीडा नख-शिख वर्णन भरपूर है। श्रोता वक्ता शैली और संवाद शैली, विशेषरूप से उल्लेखनीय है। उनका अंतिम उद्देश्य तीन पुरुषार्थों की सिद्धि के अनंतर मोक्ष पुरुषार्थ की प्राप्ति है।
मुक्तक काव्य
मुक्त्तक-काव्य क रूप में एक ओर उपदेश रसायन रास, चर्चरी आदि ताललय पर आश्रित मेय रचनाएं हैं और दूसरी ओर सिद्धों के चर्यापद है। जिस प्रकार अपभ्रंश प्रबन्ध-काव्य में चरित-काव्य प्रमुख है उसी प्रकार मुक्तक-काव्य में दोहा। जैन और बौद्ध दोनों के दोहाकोश मिलते हैं। इनमें विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है। सावयषम्म-दोहा में जैन गहस्थ धर्म का निरूपण है, जबकि योगसार और परमात्मप्रकाश म संसार के दुःख का निदान करते हए कवि ऊंची आध्यात्मिक कल्पनाएं करने लगता है। वह आत्मा को शिव, हंस और ब्रह्म के नाम से पुकारता है, वह रूपकों, प्रतीकों और पारिभाषिक शब्दावली में बात करने लगता है, उसके अनुसार शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है और वह मानव शरीर में है, इसलिए मानव शरीर तीर्थ है। चित्त की शद्धि ही उसका एकमात्र साधन है, आत्मा-परमात्मा में प्रेयसी और प्रियतम का आरोपकर कवि इस बात पर अफसोस व्यक्त करता है कि एक ही शरीर में रहते हुए मी. अंग से अग नहीं मिला। "यदि लोग पागल-पागल कहते हैं तो कहने दो, तू मोह को उखाड कर शिव को पा। आगे-पीछे ऊपर जहां देखता हं,वहां वही है।" कहन (कृष्णपाद) कहते हैं, दुनिया जग में भ्रमित है, वह अपने स्वभाव को समझने में असमर्थ है, मनुष्य को चित्त बांधता है और वही मुक्त करता है। सरह कहता है, जहां मन पवन संचार नहीं करते, जहां सूर्य और चन्द्रमा का प्रवेश नहीं, हे मूर्ख, वहां प्रवेश कर । आध्यात्मिक दोहों के अतिरिक्त शृगार, नीति, प्रेम, वीर, रोमांस और अन्योक्ति से सम्बन्धित दोहों की कमी नहीं। भाषा और विषय-वर्णन की दृष्टि से ये दोहे दो टूक अभिव्यक्ति देते हैं, उनमें कृत्रिमता नहीं है। धवल (बैल) सामंतयम की स्वामी-भक्ति का प्रतीक है, स्वामी का भारी भार देखकर वह कहता है,-'स्वामी ने मेरे दो टकडे कर दोनों और क्यों नहीं जोत दिया । गुणों से सम्पत्ति नहीं मिलती है, केवल कीर्ति मिलती है। लोग सिंह को कौड़ी के भाव नहीं खरीदते जब कि हाथी लाखों में खरीदा जाता है।' एक योद्धा गिरनार पर्वत को उलाहना देता है, 'हे गिरिनार,तु ने मनमें ईर्ष्या की, खंगार के मारे जाने परत दुश्मन पर एक शिखर तक नहीं गिरा सका।' वीर रस की दर्पोक्तियों का एक से बढ़कर एक दोहा है। एक वीर पत्नी यह कहकर संतुष्ट है कि,-'युद्ध में उसका पति मारा गया, क्योंकि यदि वह भागकर घर आता तो उसे सखियों के सामने लज्जित होना पड़ता। ऐसा योद्धा सचमुच बलिहारी के काबिल है कि, सिर के कधे पर लटक जाने पर भी, जिसका हाथ कटारी पर है ।' एक प्रोषित पतिका कहती है,-"प्रिय ने मुझे जो दिन दिए थे, उन्हें नख से गिनते-गिनते मेरी अंगलियां क्षीण हो गई ।" एक ओर पथिक बादल से कहता है, हे दुष्ट बादल! मत गरज, यदि मेरी प्रिया सचमुच प्रेम करती होगी तो मर चुकी होगी, यदि प्रेम नहीं करती, तो स्नेह-हीन है, वह दोनों तरह से मेरे लिए नष्ट हुए के समान है ।' कुछ मुक्तक इतिवृत्तात्मक खण्डों पर आधारित हैं, जैसे कोशा (वेश्या) को एक जैन मुनि नेपाल से लाकर रत्नकंबल देता है, वह उसे माली में फेंक देती है, मुनि सोच में पड़ जाता है। वेश्या कहती है-'हे मुनि! तुम कंबल के नष्ट होने की चिन्ता करते हो, परन्तु अपने संयम-रूपी रत्न की चिन्ता नहीं करते ।'