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निष्कर्ष
कुल मिलाकर अपभ्रश भाषा और साहित्य, परम्परागत भा. आर्यभाषा और साहित्य को ही एक कडी है। पूर्णरूप से काव्यात्मक और व्यापक भाषा होते हुए भी उसकी विषयवस्तु सीमित रही है। गद्य और नाटकों के अभाव की पूर्ति वह, अपनी कडवक शैली में उनके तत्वों के संयोजन द्वारा करती है। उसका भाषाई गठन आर्यभाषा की संयोगात्मक और वियोगात्मक स्थितियों का संधिकाल है। अपभ्रंश साहित्य का अंतिम चरण (12 वीं सदी) के पहिले दो सो साल नई भाषाओं के विकास के साल थे। जबकि बाद के दो सौ साल, साहित्य संक्रमण काल के। अधिकांश साहित्य धार्मिक है, वह भौतिक हीनताओं और दुर्बलताओं पर आत्मा की विजय चित्त का संयम और जिनभक्ति इसका प्रमुख स्वर है। लौकिक भावों और राग-विराग की प्रतिक्रिया भी, आलोच्य साहित्य में व्यक्तिगत स्तर पर अंकित है। युग के सामाजिक और राजनीतिक द्वंद्वों, यहाँ तक कि बाह्य आक्रमणों के प्रति ये कवि तटस्थ हैं। अपभ्रश चरितकाव्य गीत-तत्व को अपने में समाहार करके चलते हैं। भाग्य की विडम्बना के प्रति अपभ्रश साहित्य का स्वर सबसे अधिक संवेदनशील और आक्रोश पूर्ण है। आलोच्य साहित्य में लोक और शास्त्र, दोनों का समन्वय है, उसकी कला रसवंती और अलंकृत कला है, वीर और शृंगार रस की प्रचुरता होते हए भी उसका अन्त शांत रस में होता है। युग की धार्मिक संवेदनाओं को यह “साहित्य अंकित करता है। अंत में निष्कर्षरूप में यह कहा जा सकता है, अपभ्रश भाषा की तरह उसका साहित्य भी आ. भा. आर्यभाषाओं के प्रारंभिक साहित्य के लिये आधारभूत उपजीव्य रहा है। इस प्रकार अपभ्रश, भाषा और साहित्य दोनों स्तरों पर, आ. भा. आर्यभाषाओं और साहित्यों की प्रारम्भिक रूपरचना और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।