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हिन्दी जैन कवि--3
--डा. इन्दरराज बैद
काव्य की रमणीयता का आधार पाकर अध्यात्म सहज ग्राहय हो जाता है। चिंतन और प्रवचन साहित्य की ललित शैलियों में प्रवाहित होकर अपनी प्रेषणीयता को कई गुना बढ़ा देते हैं। यही कारण है कि भारतवर्ष के मनीषी संत-महात्माओं ने जन-जन तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए काव्य का सहारा लिया। भक्ति काल का साहित्य अपने अमूल्य संदेश और अप्रतिम प्रभाव के कारण ही आज तक स्वर्णिम साहित्य कहलाता है। संत और भक्त कवियों ने कविता के माध्यम से आत्मा-परमात्मा की और लोक-परलोक की गंभीर से गंभीर गुत्थियों को सुलझाने में ही अद्भुत सफलता प्राप्त नहीं की, सुललित सूक्तियों और मनोरम शब्द-चित्रों से नैतिकता और मानवीयता की महत प्रतिष्ठा भी की है। यही नहीं, अपने काव्य के सुरम्य प्रसूनों को वाग्देवी के चरणों में समर्पित करके अपने सजन-धर्म की मर्यादा का पालन भी किया है।
साहित्य की आराधना आदिकाल से ही जैन संतों और विचारकों के साधक जीवन का अटूट अंग रही है। जैन अनुशासन की स्थानकवासी परंपरा ने भी अन्य परंपराओं की तरह संदेश-प्रेषण के लिए काव्य की शैली का समुचित उपयोग किया है। मूर्ति-पूजा और धार्मिक क्रिया-कांडों के विरोध में उत्पन्न हई स्थानकवासी परंपरा ने अनेक कवि-रत्नों को जन्म दिया है। स्थानकवासी मान्यता के संत कवि और श्रावक-साहित्यकार भक्तिकाल की उस संत-परंपरा के अधिक निकट पड़ते हैं, जिसने साकार ब्रह्म की अपेक्षा निराकार ब्रह्म का, भक्ति की अपेक्षा ज्ञान का और प्रतिमा-पूजार्चना की अपेक्षा मानवीय नैतिकता की प्रतिष्ठा का अधिक समर्थन और प्रतिपादन किया है। स्थानकवासी संप्रदाय के मल प्रेरक थे श्री लोकाशाह, जिन्होंने 1451 ई. में मूर्ति पूजा और अन्य बाह्य प्राडंबरों के विरोध में आवाज उठाई थी। राजस्थान में इस परंपरा को सुदृढ़ किया श्री जीवराज जी, हरजी, धन्नाजी, पृथ्वीचन्द जी, और मनोहरजी जैसे धर्मनिष्ठ प्राचार्यों ने। आज भी इन आचार्यों की अनुयायी शिष्य-परंपरा उन्हीं के पद-चिह्नों पर चलती हुई स्वर और लेखनी से मानवता के उद्धार का महामन्त्र फंकती जा रही है। जैन शासन को इस अद्भुत क्रांतिकारी मानवतावादी परम्परा ने विपुल मात्रा में साहित्य का निर्माण करके अध्यात्म की सारस्वत सेवा की है।
__ राजस्थान के आधुनिक स्थानकवासी जैन कवियों की पंक्ति में गौरवपूर्ण स्थान है जैन दिवाकर मनि श्री. चौथमलजी का.जिन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार अपने प्रोजस्वी व्याख्यानों द्वारा तो किया ही.सूरम्य काव्य-रचना द्वारा भी उसे संभव कर दिखाया। अपने समय के इन तेजस्वी संत ने अपने समस्त प्रोज़ और माधुर्य के साथ धर्म की साधु व्याख्या की। धर्म, ईश्वर, कर्म, मन, आत्मा, ज्ञान, प्रार्थना, सद्गुरु, सत्संग, पुनर्जन्म, भक्ति, दान, शील, तप, भाव आदि तत्वों का सुन्दर और तात्विक विश्लेषण उनके 'मुक्ति-पथ' नामक काव्य-रचना में मिलता है। 'धर्म' और 'तीर्थ' के सम्बन्ध में ये काव्योक्तियां कितनी सही हैं:___"(अ) खा-पीकर के हम पड़े रहें, यह जीवन का है सार नहीं,
बस जीवदया के तुल्य जगत में, अन्य धमे व्यापार नहीं। (आ) है माता पिता तीर्थ उत्तम, और तीर्थ ज्येष्ठ जो भ्राता है, सद्गुरु तीर्थ है पदे-पदे, बस यही तीर्थ सुखदाता है।"
--(मुक्ति पथ, पृ. 8-9)