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________________ 300 धर्म की यह वास्तविक परिभाषा कवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी की थी। उन्होंने भी कहा था-"परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।" 'गज़ल गुल मन बहार' और जन सुबोध गुटका' जैसे रमणीय मुक्तक संग्रहों से लेकर तीर्थ कर चरित्रों तक का प्रणयन दिवाकर मुनि की मर्मस्पर्शी लेखनी ने किया है। क्षेत्रीय भाषा राजस्थानी का स्पष्ट प्रभाव इनकी रचनाओं की भाषा और शैली पर दिखाई पड़ता है। ‘गजल गुल चमन बहार' में छोटी-छोटी गजलों के द्वारा उन्होंने जैन युवा समाज का उद्बोधन किया और शास्त्रों के संदेश को सरल और मध र भाषा में उन तक पहुंचाया। विभिन्न सामाजिक कुरीतियों और पतन की भूमिका तैयार करने वाली व्यक्तिगत कुप्रवृत्तियों पर भी उन्होंने भीषण प्रहार किया। अपने ग्राह वान पूर्ण शब्दों में उन्होंने समाज को कहा:-- "संतान का जो चाहो भला रंडी नचाना छोड़ दो, वद्ध-बाल विवाह बन्द करो, करके कुछ दिखलाइयो । फिजूलखर्ची दो मिटा, मुंह फूट का काला करो, धर्म जाति की उन्नति करके कुछ दिखलाइयो।" --(गज़ल गुल चमन बहार- पृ. 14) प्राचार्य श्री हस्तीमल जी म. जैन संस्कृति, साहित्य और इतिहास के प्रकांड पंडित, अनुसंधायक और विश्लेषक के साथ-साथ मधर कवि भी हैं, जिनकी कविता में आत्म जागति का संदेश है, सामयिक-स्वाध्याय की प्रेरणा है और जीवन-सुधार का निर्देश है। राजस्थानी मिश्रित हिन्दी में की गई उनकी काव्य सर्जना उद्बोधन के अनेक जीवंत प्रकरणों से समृद्ध है। "जग प्रसिद्ध भामाशाह हो गये लोक चन्द इस बार, देश धर्म अरु आत्म धर्म के हए कई अाधार । तुम भी हो उनके ही वंशज कैसे भूले आन ? कहां गया वह शौर्य तुम्हारा, रक्खो अपनी शान । --(गजेंद्र पद मुक्तावली, पृ. 4) गंभीर एवं उच्च कोटि के धर्म ग्रंथों के प्रणेता प्राचार्य हस्तीमलजी ने जैन समाज में स्वाध्याय का विलक्षण मंत्र फंका है जो घर-घर में घट-घट के लौकिक अंधकार को ध्वस्त करके अध्यात्म का अलौकिक आलोक बिखेर रहा है। 'स्वाध्याय सद्गुरु की वाणी है, स्वाध्याय ही आत्म कहानी है, स्वाध्याय से दूर प्रमाद करो स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो' जैसे सीधी सरल और प्रभावी वाणी से ओत प्रोत गीत आज उनके सहस्रों अनुयायियों के अधरों पर ही नहीं थिरक रहे हैं, बल्कि स्वाध्याय की कर्म प्रेरणा देकर उनके उद्धार का मार्ग भी प्रशस्त कर रहे हैं। आपने “जैन आचार्य चरितावली" में ढाई हजार वर्ष की जैन प्राचार्य परम्परा के संक्षिप्त इतिहास को राग-रागिनियों में बांधकर, उसे सरल बनाकर प्रस्तुत किया है। स्थानकवासी समाज में कविजी' के नाम से विख्यात उपाध्याय श्री अमर मुनि का राजस्थान से काफी पुराना और निकट का संबंध रहा है। यहां के संत और श्रावक समाज को आप सदैव प्रिय रहे हैं। अपनी वाणी के जादू और लेखन की चातुरी से कवि-कुल में श्री अमर मुनि ने अमिट यश अजित किया है। वे एक सह दय मरस गीतकार, भावक मक्तककार और सिद्धहस्त प्रबन्धकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं-अमर पद्य मुक्तावली, अमर पुष्पांजलि, अमर कुसुमांजलि, अमर गीतांजलि, संगीतिका , कविता-कुंज, अमर-माधुरी, श्रद्धांजलि, धर्मवीर सुदर्शन और सत्य हरिश्चन्द्र । अंतिम दो प्रबन्धात्मक रचनाएं हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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