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कई जैन लेखकों की रचनाओं में खड़ी बोली की प्रधानता है तो कइयों में ब्रजभाषा की। कुछ रचनाओं की भाषा ऐसी भी है जिसे राजस्थानी प्रभावित हिन्दी या हिन्दी प्रभावित राजस्थानी कह सकते हैं। बहुत से जैन लेखकों ने प्राकृत, संस्कृत और राजस्थानी में रचना करने के साथ-साथ थोड़ी बहत रचनाएं हिन्दी में भी की हैं। भक्ति और अध्यात्म के पद अधिकांशतः हिन्दी में रचे गये, क्योंकि ध्रुपद शैली का काफी प्रभाव व प्रचार बढ चका था। इसी तरह नगर वर्णनात्मक गजलें प्रायः सभी एक ही शैली में खड़ी बोली में रची गई हैं। बावनी, बारहमासा आदि भी एक ही कवि ने राजस्थानी में बनाये हैं तो साथ-साथ हिन्दी में भी बनाये हैं।
जैन साहित्य रचना का प्रधान लक्ष्य जनता के नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने का रहा है इसलिये काव्यात्मकता को प्रधानता न देकर सहज और सरल शैली में अधिक लिखा गया है।
जैन साहित्य के निर्माताओं में सब से बड़ा योग जैनाचार्यों और मुनियों का रहा है। वे अपने मुनिधर्म के नियमानुसार एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में विचरते रहते हैं। इसलिए बहुत से प्राचार्य और मुनि राजस्थान प्रदेश में जन्में अवश्य किन्तु गुजरात में अधिक विचरे।
इस प्रदेश की जनभाषा राजस्थानी रही। पहिले राजस्थानी और गजराती दोनों एक ही भाषायें थीं। जब हिन्दी भाषा का प्रचार राजस्थान में अधिक होने लगा तब से प्राकृत, संस्कृत और गजराती ग्रन्थों का अनुवाद हिन्दी में होना प्रारम्भ हवा किन्तु जितना श्वेताम्बर साहित्य गुजराती में लिखा गया , उतना हिन्दी में नहीं लिखा गया। कुछ हिन्दी रचनायें अन्य प्रान्तों में विचरते हुए रची गई हैं और उधर से ही प्रकाशित हुई हैं, इसलिये ऐसी बहुत सी हिन्दी रचनायें इस निबन्ध में सम्मिलित नहीं की जा सकीं।