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की महत्वपूर्ण रचनायें है। इन रचनाओं का धर्म-दर्शन के क्षेत्र में काफी प्रभाव रहा है। इस प्रकार पाठवीं शताब्दी के इन चारों प्राकृत साहित्यकारों ने राजस्थान में प्राकृत-साहित्य को पर्याप्त समद्ध किया है।
पूर्व मध्य युग
राजस्थान में 9-10वीं शताब्दी में प्राकृत के अधिक साहित्यकार नहीं हुये। यह संस्कृत भाषा में पाण्डित्य-प्रदर्शन का युग था। सिषि की 'उपमितिभवप्रपंचकया' इसका प्रमुख उदाहरण है। यद्यपि इस युग के टीकाकारों ने प्राकृत का प्रयोग अपनी रचनामों में किया है। 9वीं शताब्दी के प्राकृत रचनाकारों में जयसिंहसरि प्रमख है। इन्होंने 'धर्मोपदेशमाला' पर 5778 श्लोक प्रमाण एक विवरण लिखा है, जो वि.सं. 915 में नागौर में पूर्ण हुअा था। इसमें 156 कथायें प्राकृत में दी गयी है।2
ग्यारहवीं शताब्दी में राजस्थान में प्राकत-साहित्य की पर्याप्त समृद्धि हुई है। जिनेश्वरसूरि इस समय के प्रभावशाली आचार्य थे। इनका कार्य-क्षेत्र गुजरात, मालवा, मेवाड और मारवाड़ रहा है। इन्होंने मारवाड़ के डिण्डवानक गांव में प्राकृत में 'कथाकोष-प्रकरण' की रचना की थी। वि. सं. 1086 में जालौर में 'चैत्यवन्दन विवरण' इन्होंने लिखा था। इनके अतिरिक्त भी 2-3 रचनाएं और इनकी प्राकृत में हैं।3
इसी शताब्दी में धनश्वरसूरि ने चन्द्रावती (प्राबू) में 'सुरसुन्दरीचरिय' प्राकृत में लिखा। दुर्गदेव ने कुंभनगर (भरतपुर) में 'रिट्ठसमुच्चय' ग्रन्थ की रचना प्राक्त में की 14 बुद्धिसागर ने जालौर में पंचग्रन्थी' ग्रन्थ प्राकृत में रचा। महेश्वरसूरि की ज्ञानपंचमीकहा भी इसी शताब्दी की रचना है। इस शताब्दी के प्रसिद्ध व वि धनपाल का भी राजस्थान (सांचौर) से संबंध रहा है, जिन्होंने प्रात में पाइयलच्छीनाममाला' ग्रन्थ की रचना की है।5
ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में प्रावत साहित्य को समृद्ध करने वालों में न मिचन्द्रसूरि का प्रमुख स्थान है। प्राचार्य पद प्राप्त करने के पूर्व इनका नाम देवेन्द्रगणि था। इन्होंने कई प्राकृत ग्रन्थ लिखे हैं। वि. सं. 1129 में इन्होंने उत्तराध्ययन की सुखबोध टीका लिखी, जिसमें कई प्राकृत कथायें हैं। वि. सं. 1140 में इन्होंने प्राकृत में 'महावीर चरियं' लिखा। तथा
1. शास्त्री नेमिचन्द-प्राकृत भाषा और साहित्य का पालोचनात्मक इतिहास, पृ. 2391 2. मेहता, मोहनलाल, 'जन साहित्य का वृहद् इतिहास,' भाग 4, पृ. 1961 3. मुनि जिनविजय, 'कथाकोष प्रकरण', भूमिका। 4. शाह, अम्बालाल प्रे. 'जन साहित्य का बृहद् इतिहास' भाग 5 (लाक्षणिक साहित्य)
पृ. 2021 5. 'सत्यपुरीयमंडन-महावीरोत्साह' में उल्लेख ।