SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विद्वान वीरसेन ने शास्त्रों का अध्ययन किया था। प्रतः एलाचार्य की उपस्थिति में विचार गुप्तयुग में साहित्य - साधना और विद्या का केन्द्र बन गया था। राजस्थान के प्राकृत के प्रारम्भिक साहित्यकारों व विद्वानों में सिद्धसेन के बाद एलाचार्य को स्मरण किया जा सकता है. जिनके शिष्य वीरसेन ने पाठवीं शताब्दी में प्राकृत की महत्वपूर्ण रचना 'धवला' टीका के रूप में की है। प्राकृत साहित्य का क्रमिक विकास राजस्थान में प्रारत-साहित्य पाठवीं शताब्दी में पर्याप्त समद्ध हो चुका था। इस शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान प्राचार्य हरिभद्रसरि, उद्योतनसरि, पद्मनन्दि तथा प्राचार्य वीरसेन है। प्राचार्य हरिभद्र का जन्म चित्तौड मेंहा था। ये जन्म से ब्राह्मण थे तथा राजा जितारि के पुरोहित । जैन दीक्षा ग्रहण करने के बाद हरिभद्रसरिने जन वाडमय की अपूर्व सेवा की है। इन्होंने प्राचीन पागमों पर टीकाएं एवं स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्थ भी लिखे हैं। दर्शन व साहित्य विषय पर आपकी विभिन्न रचनाओं में प्राकृत के निम्न ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध है--समराइच्चकहा, घाख्यान, उपदेशपद, धम्मसंगहणी,योगशतक,संबोहपगरण आदि। हरिभद्रसरि ने न केवल अपने मौलिक प्राकृत ग्रन्थों द्वारा अपितु टीकाग्रन्थों में प्राप्त के प्रयोग द्वारा भी राजस्थान में प्राकृत के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दिया है। हरिभद्रसूरि का समय ई. सन् । 700-170 माना जाता है। उद्योतनसरि, हरिभद्रसरि के शिष्य थे। उन्होंने सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन हरिभद्रसूरि से किया था। उद्योतनसरि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कुवलयमालाकहा' द्वारा राजस्थान में प्राकृत-कथा साहित्य को एक नया मोड़ दिया। उनकी यह कृति भारतीय साहित्य में चम्पू विद्या का प्रथम निदर्शन है ।3 ई. सन 719 में जालौर में कुवलयमाला की रचना हुई थी। उदद्योतनसूरि ने इस ग्रन्थ द्वारा प्राकृत कथा साहित्य का प्रतिनिधित्व विया है। इसी शताब्दी में प्राचार्य वीरसेन ए है। इनके जन्म स्थान के संबंध में मतभेद हैं। किन्तु इनका अध्ययन केन्द्र चित्तोड था। प्राकत के ये प्रकाण्ड पण्डित थे। प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ षटखण्डागम पर इन्होंने 'धवला'नाम की टीका लिखी है, जो 72 हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत व संस्कृत में हैं। वीरसेन की विद्वत्ता व पाण्डित्य की प्रशंसा उत्तरवर्ती अनेक कवियों ने इस शताब्दी के प्राप्त रचनाकारों में पदभनन्दि का महत्वपूर्ण स्थान है। ये वीरनन्दि की शाखा में बालमन्दि के शिष्य थे। वि.सं. 805 में मेवाड राज्य के बारानगर में आपका जन्म हुमाया। पद्मनन्दि की 'पंचविंशति', 'जम्बद्वीपपण्णत्ति' तथा 'धम्मरसायण' प्राकृत 1. जीवनी के लिये द्रष्टव्य-संध्वी 'समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र' 1963 । 2. द्रष्टव्य-शास्त्री, नेमिचन्द्र, 'हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का मालोचनात्मक परि शीलन । 3. उपाध्ये, ए. एन.--'कुवलयमालाकहा-भूमिका । 4. लेखक का प्रबंध-'कुवलयामालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन' 1975 । 5. जैन, ज्योतिप्रसाद, राजस्थान के सबसे प्राचीन साहित्यकार-वीरवाणी, अप्रैल, 1966 ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy