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कठिन है। पुनरपि सरस्वती नदी का उल्लेख राजस्थान में प्रारम्भ से ही साहित्य रचे जाने का प्रतीक है। यही बात राजस्थान में उपलब्ध प्रारम्भिक साहित्य से फलित होती है। .
संस्कृत व प्राकृत की रचनाओं में महाकवि माघ का "शिशुपालवध", प्राचार्य हरिभद्रभूरि का "धूर्ताख्यान" व उद्योतनमूरि की "कुवलयमालाकहा" ऐसी प्रारम्भिक रचनाएं है जिनमें उनके कर्ता के साथ-साथ उनके रचना-स्थलों और समय का भी उल्लेख है। ये सभी रचनाएं पाठवीं शताब्दी की है और काव्य तथा शैली की दृष्टि से पर्याप्त प्रोढ है । अतः इनके सृजन के पीछे राजस्थान में साहित्यिक विकास की एक सुदृढ पष्ठभूमि होनी चाहिये। यह अनुमान किया जा सकता है कि राजस्थान में 4-5वीं शताब्दी में ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ हो गया होगा। क्योंकि इस युग में देश में विपुल साहित्य रचा जा रहा था। राजस्थान के तत्कालीन मंगरों में रहने वाले साहित्यकार इसमें पीछे नहीं रहे होंगे।
जन-साहित्य की दृष्टि से यह युग प्रागर्मी पर भाष्य प्रादि लिखे जाने का था। जनाचार्य अपनी टीकामों में प्राकृत का प्रयोग अधिक कर रहे थे। प्राक्त में लौकिक काव्य आदि भी लिखे जा रहे थे। अतः सम्भव है कि किसी जैनाचार्य ने राजस्थान में विचरण करते हुये प्राकृत में ग्रन्थ रचना की हो। जैनागम के प्रसिद्ध टीकाकारों का प्रामाणिक परिचय उपलब्ध होने पर भी संभव है कि गुप्तयुग में राजस्थान में रचित्त विसी प्राप्त ग्रन्थ का पता चल सके। गप्त यग में रचित ऐसी कुछ प्राकृत रचनामों ने ही पाठवीं शताब्दी की प्राकृत रचनाओं के निर्माण में भूमिका प्रदान की होगी।
राजस्थान में गुप्तयुग के जमाचार्यों में प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर एवं एलाचार्य का चित्तौड़गढ़ से संबंध बतलाया जाता है। सिद्धसेन दिवाकर 5वीं शताब्दी के बहुप्रज्ञ विद्वान् थे। प्रभावकचरित और प्रबन्धकोश में सिद्धसेन की चित्तौड़गढ़ यात्रा के उल्लेख प्राप्त हैं।
करकी पदवीं उन्हें चित्तौडगढ महीप्राप्त हई थी।2 प्रतः बहत संभव है कि सिद्धसेन की साहित्य-रचना का क्षेत्र मेवार का प्रदेश रहा हो। प्राकृत में लिखा हुआ उनका 'सन्मतितक' मामक ग्रन्थ राजस्थान के साहित्यकार की प्रथम प्राकृत रचना मानी जा सकती है।
दिगम्बर आचार्यों की परम्परा में एलाचार्य को 7वीं शताब्दी का विद्वान माना जाता है। कुछ विद्वान् एलाचार्य को कुन्दकुन्द से अभिन्न मानते हैं। किन्तु एक एलाचार्य कुन्दकुन्द के बाद में भी हये हैं। इन्द्रनंदिकृत "श्रुतावतार" से ज्ञात होता है कि एलाचार्य चित्रकूट (चित्तौड़गढ़) में निवास करते थे। वे न शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उनके पास प्रसिद्ध
1. मेहता, मोहनलाल-मागमिक व्यास्याएं, "जन साहित्य" का बृहद इतिहास भाग, 3,
19671 2. संघवी, सुखलाल-"सन्मतिप्रकरण" प्रस्तावना, 1963 । 3. मुख्तार, जुगलकिशोर, "पुरातन अन वाक्य-सूचि", प्रस्तावना । 4. काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी ।
श्रीमान लाचार्यों बभूव सिद्धान्त तत्वज्ञः ॥1761 तस्य समीपे सकलं सिदान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः। उपरितमनिबन्धानवाधिकारामष्टं सिलेव ॥77m -श्रावतार