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________________ 397 ब्रह्मदेश आदि में होते हैं जिसके पत्ते बड़े चिकने, लचीले और टिकाऊ होते हैं। ये ताड़पत्र ग्रन्थ-लेखन में काम आते हैं। इन्हें प्रौढ हो जाने पर सीधे करके एक साथ जमीन में डाल कर सुखाए जाते हैं जिससे इनका रस धप के साथ न उड कर उसी में रहता है और कोमलता प्रा जाती है। ये पत्ते लम्बाई में 37 इंच तक के मिलते हैं। पाटण के भण्डार की प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रति 37 इंच लम्बी है । कागजः--इसे संस्कृत में कागद या कदगल नाम से और गजराती में कागल नाम से सम्बोधित किया है। जैसे आजकल विविध प्रकार के कागजाते हैं, प्राचीन काल में भी भिन्न-भिन्न देशों में बने विविध प्रकार के मोटे पतले कागज होते थे। काश्मीर, दिल्ली, बिहार, वाड, उत्तर प्रदेश (कानपर) गजरात (अहमदाबाद). खंभात, देवगिरि (कागजापुरा), उड़ीसा (बालासोर) प्रादि के विविध जाति के कागजों में विशेषतः काश्मीरी, कानपुरा, अहमदाबादी व्यवहार में आते हैं। काश्मीरी कागज सर्वोत्तम होते हैं। प्राचीन ज्ञान भण्डारा में प्राप्त 14वीं, 15वीं शताब्दी के कागज आज के से बने हए लगते हैं पर 18वीं, 19वीं शताब्दी के कागजों में टिकाऊपन कम है। मिल के कागज तो बहुत कम वर्ष टिक पाते हैं। कागज काटनाः---आजकल की भांति इच्छित माप के कागज न बनकर प्राचीन काल में बने छोटे-मोटे कागजों को पेपर कटिंग मशीनों के अभाव में अपनी आवश्यकतानुसार काटना होता था और उन्हें बांस या लोहे की चीपों में देकर हाथ से काटा जाता था। घोटाई:--ग्रन्थ लेखन योग्य देशी कागजों को घोटाई करके काम में लेते थे जिससे उनके अक्षर फटते नहीं थे। यदि बरसात की सील से पॉलिश उतर जाती तो उन्हें फिर से घोटाई करनी होती थी। कागजों को फिटकड़ी के जल में डुबो कर अधसूखा होने पर अकीक, कसौटी आदि के घंटे-अोपणी से घोट कर लिखने के उपयक्त कर लिए जाते थे । अाजकल के मिल कारखानों के निर्मित कागज लिखने के काम नहीं आते। वे दीखने में सुन्दर और चमकदार होने पर भी शीघ्र गल जाते हैं । वस्त्रपट:--कपड़े पर यन्त्र, टिप्पण आदि लिखने के लिए उसे गेहूं या चावल की लेई द्वारा छिद्र बन्द होने पर, सुखाकर के घोटाई कर लेते । जिस पर चित्र, यंत्र, ग्रन्थादि सुगमता से लिखे जा सकते थे । पाटण भण्डार के वस्त्र पर लिखित ग्रन्थ खादी को दुहरा चिपका कर लिखा हुआ है। टिप्पणक:-जन्म कुण्डली, अणुपुर्वी, विज्ञप्ति-पत्र, बारहव्रतटीप आदि Serole कागज के लीरों को चिपका करके तैयार करते तथा कपड़े के लम्बे थान में वे आवश्यकतानुसार बना कर उसके साथ चिपका कर या खाली कागज पर लिखे जाते थे, जिन पर किए हुए चित्रादि सौ-सौ फीट लम्बे तक के पाए जाते हैं। काष्ठ पट्टिका:-काष्ठ की पट्टियां कई प्रकार की होती थीं। काष्ठ की पट्टियों को रंग कर उस पर वर्णमाला आदि लिखी हुई 'बोरखा पाटी' पर अक्षर सीखने-जमाने में काम लेते थे । खड़ी मिट्टी के घोल से उस पर लिखा जाता था तथा ग्रन्थ निर्माण के कच्चे खरड़े भी पाटियों पर लिखे जाते थे। उत्तराध्ययन वृत्ति (सं. 1129) को नेमिचन्द्राचार्य ने पद्रिका पर लिखा था जिसे सर्वदेव गणि ने पूस्तकारूढ़ किया था। खोतान प्रदेश में खरोष्टी लिपि में लिखित कई प्राचीन काष्ठ पट्टिकाएं प्राप्त हुई हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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