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________________ ... 13. जिनमद्रसूरि:--समय 1449-1514 । खरतरगच्छ । गुरु जिनराजसूरि । बन्म 1449 । जम्ममाम रामणकुमार । माता-पिता छाजहर गोत्रीय सा. धाणिक एवं तलदे । दीमा 1461 । भाचार्यपद 1475 । स्वर्गवास 1514 कुंमलमेर । प्रमुख कार्यबैसलमेर, जालोर, देवगिरि, मागोर, पाटण, मारवगढ, आशापल्ली, कर्णावती पोर खंभात मादि स्थानों पर इन्होंने ज्ञान भण्डार स्थापित किये और सहनों नये ग्रन्थ लिखवाकर, संगोषन कर इन मंगरों में स्थापित किये । जैसलमेर का ज्ञान भण्डार बाज भी आपकी कौति-पताका को मझुण्ण रखकर विश्व में फहरा रहा है। इन्होंने सहनों मूर्तियों की प्रतिष्ठायें एवं बनेकों क्वीन मन्दिरों की स्थापना की । रचनायें निम्न है : सूरिमन्त्रकल्प, शत्रुज्जय लघुमाहात्म्य, स्तोत्रादि । जिनसत्तरी प्राकृत भाषा में है । 14 वाडवः--जैन श्वेताम्बर उपासक वर्ग के इने-गिने साहित्यकारों-कवि पदमानन्द, उसकुर फेर, मन्त्री मणन, मन्त्री धनद आदि के साथ टीकाकार वाडव का नाम भी गौरव के साथ लिया जा सकता है। वाडव जैन श्वेताम्बर अञ्चलगच्छीय उपासक बावक था। वह विराट नगर वर्तमान बैराठ (अलवर के पास, राजस्थान प्रदेश) का निवासी था । संस्कृत साहित्यशास्त्र और जैन साहित्य का प्रौढ विद्वान् एवं सफल टीकाकार था । इसका समय वैक्रमीय पन्द्रहवीं शती का उत्तराखं है। इसने अनेक ग्रन्थों पर टीकायें लिखी थीं किन्तु दुखः है कि आज तो उसका कोई अन्य ही प्राप्त है और न जैन इतिहास या विद्वानों में उल्लेख ही प्राप्त है । मारव की एकमात्र अपूर्ण कृति “वृत्तरत्नाकर अवधूरि" (15वीं शती के अन्तिम चरण की लिली) मेरे निजी संग्रह में है। इसकी प्रशस्ति के अनुसार वाडव ने जिम-जिम ग्रन्थों पर टीकायें लखी है, उनके नाम उसने इस प्रकार दिये हैं:1. कुमारसम्भव काव्य अपरि 2. मेषबूत काव्य अवचूरि 3. रघुवंश काम्य अवघरि 4 माष काव्य अवचूरि किरातार्जुनीय काय अवचूरि कल्याण मन्दिर स्तोष 7. भक्तामर स्तोत्र नवरि . पाश्र्वनाम स्तोत्र 2. जीरापल्की पावनाप स्तोत्र मवरि 10. त्रिपुरा स्तोत्र अवचूरि 1. वृत्तरलाकर अवचूरि 12. वाग्मटालंकार अवचूरि 13. विदग्धमुखमण्डन अवचूरि 14. योगशास्त्र (4 मध्याय) अवपरि 15. वीतराग स्तोत्र मवचूरि अवरि अपचर पाडव की अन्य कृतियां जो अप्राप्त है उनके लिये शोष विद्वानों का कर्तव्य है कि खोज करके अन्य प्रन्यों को प्राप्त करें और वाग्व के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विशेष प्रकाश डालें। 15. चारित्रवर्द्धनः-समय लगभग 1470 से 1520 । लघु खरतरगच्छ । गुरु ल्याणराज । कार्य क्षेत्र मुन्झुनू के आस-पास का प्रदेश । प्रतिमाशाली और बहुश्रुत विद्वान् । रवेष-सरस्वती उपनाम । ख्यातिप्राप्त समर्थ टीकाकार । प्रमुख रचनायें है :-- रघुवंश टीका, कुमारसम्भव टीका (1492), शिशुपालवष टीका, नषषकाव्य टीका 1511), मेघदूत टीका, राघवपाण्डवीय टीका, सिन्दूर प्रकर टीका (1505), मावारिवारण एवं कल्याण मन्दिर स्तोत्र टीका । चारित्रवन ने इन टीकाओं की रचना अपने उपासकों की मान-वृद्धि के लिये की है। ससे स्पष्ट है कि ठ. अरकमल्ल और ठ. सहलमल्ल, भीषण आदि भी संस्कृत के अच्छे बद्वान् थे।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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