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________________ प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। मूलाचार को एक प्रशस्ति में भट्टारक जिनचन्द्र की निम्न शब्दों में प्रशंसा की गई है : तदीयपटाम्बरभानुमाली क्षमादिनानागुणरत्नशाली । भटटारक-श्रीजिनचन्द्रनामा सैद्धान्तिकान द्वान्तिकानां भुवि योऽस्ति सीमा । जिनचन्द्र की साहित्य के प्रति अपूर्व श्रद्धा थी। वे प्राचीन ग्रन्थों की नयी-नयी प्रतियां लिखवा कर शास्त्र-भण्डारों में विराजमान करवाते थे तथा जनता को प्राचीन ग्रन्यों के संरक्षण की प्रेरणा देते थे। पं. मेधावी उनका एक प्रमुख शिष्य था जो संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् था । उसने अपने गरु की प्रशंसा करते हए लिखा है कि जिनचन्द्र का जन्म समद्र में से चन्द्रमा के जन्म के समान हया था। वे अपने समय के सभी जैन सन्तों के अग्रणी थे। वे स्याद्वाद रूपी आकाश के हार थे तथा अपने प्रवचनों से सब श्रोताओं के हृदयों का प्रसन्न करने वाले थे। वे षटदर्शनों के निष्णात विद्वान् थे। __ भ. जिनचन्द्र की अब तक जो दो हतियां उपलब्ध हुई है उनमें एक संस्कृत एवं एक प्राकृत की रचना है। जिन चतुर्विशति स्तोत्र संस्कृत की रचना है तथा सिद्धान्तसार प्राकृत भाषा में निबद्ध है। सिद्धान्तसार में 79 गाथाएं है। इनमें जोव समास, गुस्थान, संज्ञा, पर्याप्ति, मरण एवं मार्गणाओं का वर्णन किया गया है। इसकी 78 वीं गाथा में भट्टारक जिनचन्द्र ने अपने नाम का उल्लेख किया है। i. चैनसुखदास न्यायतीर्थ 20 वीं शदी के विद्वानों में पं. चैनसखदास न्यायतीर्थ का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। इनका जन्म 22 जनवरी सन् 1899 में भादवा ग्राम में हुश्रा तथा मृत्यु जयपुर नगर मं 26 जनवरी सन् 1969 महुई। पडित जो प्राकुत, संस्कृत एवं हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान पे। वे कवि थे, लेखक थे तथा जैन-दर्शन के प्रकाण्ड व्याख्याता थे। इनको प्रमुख रचनाओं में जैन दर्शनसार, भावना-विवेक, पावन-प्रवाह के नाम उल्लेखनीय हैं। अर्हत प्रवचन इनको सम्पादित कृति है जिसमें विभिन्न प्राकृत-ग्रंथों में से जीवन को स्पर्श करने वाली एवं जनापयोगी 500 से भी अधिक गाथाओं का संकलन किया गया है। इसमें जीव और प्रात्मा, कर्म, गगथान, सम्यकदर्शन, भाव, मन-इन्द्रियों कषाय विजय, श्रावक, प्रात्म-प्रशंसा, परनिन्दा, शाल गति, भक्ति, धर्म, वैराग्य, श्रमग, तप, शुद्धापयोगी प्रात्मा आदि विभिन्न विषयों का अच्छा वर्णन हुआ है। पंडित जी का यह संकलन प्रात्मोदय ग्रंथमाला जयपुर से सन् 1962 में काशित हो चुका है। डा. नेमिचन्द्र शास्त्री डा. नमिचन्द्र शास्त्री का अभी डेढ़ वर्ष पूर्व ही 10 जनवरी, 1974 को स्वर्गवास हा तथा वे अपने जीवन के यशस्वी 59 वर्ष पूर्ण करके चिरनिन्द्रा में समा गये। वे राजस्थानी विद्वान थे और घोलपुर में पौष कृष्णा 12 को संवत् 1972 को इनका जन्म हा था। वे पाच्य विद्याओं के प्रकाण्ड विद्वान् थे तथा प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था। इनकी अब तक 37 से भी अधिक रचनायें प्रकाशित हो चको है। शास्त्री जी प्राकृत भाषा के विशेष प्रेमी थे। इन्होंने अपनी पी.एच. डी. को उपाधि 'हरिभद्र के प्राकृत कथा-साहित्य का पालाचनात्मक अध्ययन" विषय पर प्राप्त को थो । सके पश्चात वे प्राकृत के प्रचार-प्रसार में लग गये और आरा जैन कॉलेज में शिक्षण कार्य करते
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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