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________________ गया है क्योंकि ध्यान ही मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन है। ग्रंथकार ने यह भी बतलाया है कि तप, श्रुत एवं व्रतों का धारी आत्मा ही ध्यान करने में समर्थ है। इसलिये जीवन में तप की आराधना करनी चाहिये, श्रुत का अभ्यास करना चाहिये तथा व्रतों को धारण करना चाहिये। इस प्रकार नेमिचन्द्र मुनि ने अपनी इस कृति में जन-दर्शन के सभी प्रमुख तत्वों का कथन कर दिया है । प्राचार्य पदमनन्दि पद्मनन्दि नाम के 9 से भी अधिक प्राचार्य एवं भट्टारक हो गये हैं जिनका उल्लेख विभिन्न ग्रन्थों, शिलालेखों एवं मतिलेखों में मिलता है। लेकिन वीरनन्दि के प्रशिष्य एवं बालनन्दि के शिष्य आचार्य पदमनन्दि उन सबसे भिन्न है। ये राजस्थानी विद्वान् थे और बारा नगर इनका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था। पदमनन्दि ने अपने प्रमुख ग्रंथ जम्बूदीवपणती में बारां नगर का विस्तृत वर्णन किया है। वह नगर उस समय पुष्करणी बावड़ी, सुन्दर भवनों, नानाजनों से संकीर्ण और धन्यधान्य से समाकुल, जिन मन्दिरों से विभूषित तथा सम्यकदृष्टिजनों भार मान-मणों के समहों से मंडित था। पदमनन्दिके समय बारांनगर का शक्तिभपाल शासक था। वह राजा शील-सम्पन्न, अनवरत दानशील, शासन वत्सल, धीर, नानागग कलित, नरपति संपूजित तथा कलाकुशल एवं नरोत्तम था । राजपूताने के इतिहास में गहिलोतवंशी राजा नरवाहन के पत्र शालिवाहन के उत्तराधिकारी शक्तिकमार का उल्लेख मिलता है। पं. नाथूराम प्रेमी ने बारां की भट्टारक गादी के आधार पर पदमनन्दि का समय विक्रम संवत1100 के लाभग माना है। पद्मनन्दि प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान थे। जैन-दर्शन तथा तीनों लोकों की स्थिति का उन्हें अच्छा ज्ञान प्राप्त था। अपने समय के वे प्रभावशाली प्राचार्य एवं भट्टारर थे तथा अनक शिष्य-प्रशिष्यों के स्वामी थे। उस समय प्राकृत के पठन-पाठन का अच्छा प्रचार था। राजस्थान एवं मालवा उनकी गतिविधियों का प्रमख केन्द्र था। पदमनन्दि की प्राकृत भाषा की दो कृतियां उपलब्ध होती है जिनमें एक, जम्बूदीवपणती, तथा दूसरी धम्मरसायन है । जम्बदीवपण्णत्ती, एक विशालकाय कृति है जिसमें 2427 गाथाएं हैं जो 93 अधिकारों में विभक्त हैं। ग्रंथ का विषय मध्यलोक के मध्यवर्ती जम्बद्वीप का विस्तत वर्णन है और वह वर्णन जम्बूद्वीप के भरत, ऐरावत, महाविदेह क्षेत्रों, हिमवान आदि पर्वतों, गंगा सिन्धवादि नदियों, पद्म महापदम आदि सरोवरों, लव गादि समद्रों. काल के उत्पसर्पिणी अवसर्पिगो प्रादि भेद प्रभेदों तथा उनसे होने वाले काल परिवर्तनों तथा ज्योतिष पटलों से संबंधित है। वास्तव में यह ग्रंथ प्राचीन भूगोल खगोल का अच्छा वर्णन प्रस्तुत करता है। माचार्य पद्मनन्दि की दूसरी रचना धम्मरसायग है जिसमें 193 गाथायें हैं। भाषा एवं शंली की दृष्टि से यह ग्रथ अत्यधिक सरल एवं सरस है। इसमें धर्म को ही परम रसायण माना गया है। यही वह भीषधि है जिसके सेवन से जन्म-मरण एवं दुःख का नाश होता है । धर्म की महिमा बतलाते हुए ग्रंथ में कहा है कि धर्म ही त्रिलोकबन्धु है तथा तीन लोकों में धर्म ही एक मान शरण है। धर्म के पान से यह मनुष्य तीनों लोकों का पार कर सकता है। धम्मो तिलोयबन्ध धम्मो सरणं हवे तिहुयणस्स । धम्मेण पूयणीप्रो, होइ णरो सव्वलोयस्स ।। भट्टारक जिनचन्द्र भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य भट्टारक जिनचन्द्र 16 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध दि. जैन सन्त थे। इन्होंने सारे राजस्थान में विहार करके जन-साहित्य एव संस्कृति के
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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