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________________ हिन्दी जैन गद्य साहित्य-8. --पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ राजस्थान प्राचीन काल से ही साहित्य व संस्कृति का केन्द्र रहा है। यहां की भूमि में जिस प्रकार अनेक रण-बांकुरों ने जन्म लेकर इसके कण-कण को पवित्र किया है उसी प्रकार अनेक साहित्यकारों व कलाकारों ने साहित्य की सर्जना कर तथा कला द्वारा इसका सम्मान बढ़ाया है। अनेक शास्त्र भण्डार और विशाल कलापूर्ण मन्दिर इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं। साहित्य समाज का दर्पण है। समाज की उन्नति, अवनति, अधोपतन, विनाश व पूनरुत्थान आदि सभी उसके साहित्य में सम्मिलित हैं। यदि किसी समाज का साहित्य सम्पन्न, उच्च कोटि का व लोकोपकारी भावनाओं से प्रोत-प्रोत है, आत्मा के उद्धार में सहयोग देने वाला है, उसी समाज की स्थिति अक्षण्ण बनी रहती है अन्यथा बनती व बिगड़ती रहती है और कभीकभी तो समूल नष्ट हो जाती है। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि राजस्थान में अनेक शास्त्र भण्डार हैं जिनमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी व हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में लिपिबद्ध प्रागम-सिद्धान्त, ज्योतिष, व्याकरण, आयर्वेद, इतिहास, चरित्र पूराण, काव्य, कथा, रस, पिंगल कोश आदि अनेक विषयों के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इन भण्डारों के सुचीपत्र भी छपे हैं। वैसे सभी भाषाओं का साहित्य पद्य व गद्य में मिलता है किन्तु पद्य में प्रचर मात्रा में उपलब्ध है। इसका कारण यह है कि गेय होने के कारण स्वांतःसूखाय और मनोरंजक होने के कारण साहित्यकारों की रुचि पद्य-रचना की ओर अधिक रही है। राजस्थान में आज भी बड़े-बड़े आख्यान गीत रूप में गा कर सुनाए जाते हैं। वक्ता और श्रोता को जितना अानन्द गेय पद्यों में आता हैं और किसी में भी नहीं। पद्यों की गद्यात्मकता से मनष्य ही नहीं पश-पक्षी भी झम उठते हैं और आनन्द-विभोर हो जाते हैं। गद्य का विकास बहत पीछे का है। डा. राम चन्द्र शुक्ल के अनुसार तो हिन्दी साहित्य के सर्वप्रथम गद्यकार लल्ल लाल तथा संदल मिश्र माने जाते हैं किन्तु यह धारणा अब गलत सिद्ध हो चुकी है क्योंकि हिन्दी गद्य साहित्य का विकास 18वीं शताब्दी से पूर्व हो चुका था । पं. दौलतराम कासलीवाल, महापण्डित टोडरमल, पं. जयचन्द छाबड़ा आदि दिगम्बर जैन गद्य साहित्यकार हुए हैं किन्तु इनकी रचनाएं अधिकतर राजस्थानी, ढढारी तथा ब्रज मिश्रित है। कहीं-कहीं गुजराती व पंजाबी का भी पुट है। यद्यपि डा. रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में पं. दौलतराम के गद्य को खड़ी बोली का गद्य स्वीकारा है (पत्र 411), किन्तु इनकी भाषा ढंढारी तथा ब्रज होने के कारण पूरी तरह से खड़ी बोली की गणना में नहीं पाती। खड़ी बोली का गद्य साहित्य गत 100 वर्षों से ही मिलता है। खड़ी बोली का तात्पर्य जनसाधारण की सीधी सादी बोली है। इस भाषा में रचना करने वाले राजस्थान के दिगम्बर जैन साहित्यकारों में से कुछ प्रमुख साहित्यकारों का परिचय इस प्रकार है। 1. पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ:--पंडितजी प्राकृत, संस्कृत के समान हिन्दी भाषा के भी प्रमुख विद्वान थे। प्रारम्भ से ही इन्हें लिखने में रुचि थी तथा आपके लेख विश्वामित्र, कल्याण, अनेकान्त, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रों में प्रकाशित होते रहते थे। आप वर्षों तक विभिन्न पत्रों के सम्पादक रहे। वीरवाणी की सम्पादकीय टिप्पणियांपकी विद्व सूझबूझ के अतिरिक्त आपको हिन्दी गद्य के प्रमुख लेखकों में प्रस्तुत करने वाली है। आप कभी
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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