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________________ 19 यहां यह भी स्मरणीय है कि जैन कवियों ने केवल पद्य के क्षेत्र में ही नवीन काव्यरूप खड़े नहीं किये वरन् गद्य-क्षेत्र में भी कई नवीन काव्य-रूपों की सृष्टि की। यह सृष्टि इसलिए मौर भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसके द्वारा हिन्दी गद्य का प्राचीन इतिहास प्रकट होता है। हिन्दी के प्राचीन ऐतिहासिक और कलात्मक गद्य के विकास में इन काव्य-रूपों की देन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। जैन कवि सामान्यतः सन्त रहे हैं। व्याख्यान और प्रवचन देना उनके दैनिक प्राचार का प्रमख अंग है। दर्शन जैसे जटिल और गढ विषयों को समझाने के लिए वे कवि सन्त से साहित्यकार बने। धर्म प्रचार की दृष्टि से इन्होंने अपनी बात को लोकमानस तक पहुंचाने के लिए काव्य और संगीत का सहारा लिया तथा अपनी परम्परा को सुरक्षित रखने व शारत्र-विवेचना के लिए प्रमखतः ऐतिहासिक और टीका ग्रन्थों का सहारा लिया। एक का मुख्यतः माध्यम बना पद्य और दूसरे का गद्य । फलतः दोनों क्षेत्रों में कई काव्य-रूपों का सजन और विकास हया। पद्य के सौ से अधिक काव्यरूप देखने को मिलते हैं। सूविधा की दष्टि से इनके चार वर्ग किये जा सकते हैं -चरित्र काव्य, उत्सव काव्य, नीतिकाव्य, और स्तुति काव्य। चरित. काव्य में सामान्यतः किसी धार्मिक पुरुष, तीर्थंकर आदि की कथा कही गई है। ये काव्य, रास, चौपाई, ढाल, पवाड़ा, संधि , चर्चरी, प्रबन्ध, चरित, सम्बन्ध, आख्यानक, कथा आदि रूपों में लिखे गये हैं। उत्सव काव्य विभिन्न पर्वो और ऋतु विशेष के बदलते हुए वातावरण के उल्लास और विनोद को चित्रित करते हैं। फागु, धमाल, बारहमासा, विवाहलो, धवल, मंगल आदि काव्यरूप इसी प्रकार के हैं। इनमें सामान्यतः लौकिक रीति-नीति को माध्यम बनाकर उनके लोकोत्तर रूप को ध्वनित किया गया है। नीति-काव्य जीवनोपयोगी उपदेशों से सम्बन्धित है। इनमें सदाचार-पालन, कषाय-त्याग, व्यसन-त्याग, ब्रह्मचर्य, व्रत, पच्चक्खाण, भावना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, दान, दया, संयम आदि का माहात्म्य तथा प्रभाव वर्णित है। संवाद, कक्का, मातका, बावनी. छत्तीसी, कुलक, हीयाली आदि काव्यरूप इसी प्रकार के हैं। स्तुतिकाव्य महापुरुषों और तीर्थंकरों की स्तुति से सम्बन्धित हैं। स्तुति, स्तवन, स्तोत्र, सज्झाय, विनति, नमस्कार, चौबीसी, बीसी आदि काव्यरूप स्तवनात्मक ही हैं। गद्य साहित्य के भी स्थूल रूप से दो भाग किये जा सकते हैं। मौलिक गद्य-सृजन और टीका, अनुवाद प्रादि । मौलिक गद्य सृजन धार्मिक, ऐतिहासिक, कलात्मक आदि विविध रूपों में मिलता है। धार्मिक गद्य में सामान्यतः कथात्मक और तात्विक गद्य के ही दर्शन होते हैं। ऐतिहासिक गद्य गुर्वावली, पट्टावली, वंशावली, उत्पत्तिग्रन्थ, दफ्तर बही, टिप्पण आदि रूपों में लिखा गया। इन रूपों में इतिहास-धर्म की पूरी-पूरी रक्षा करने का प्रयत्न किया गया है। प्राचार्यो आदि की प्रशस्ति यहां अवश्य है पर वह ऐतिहासिक तथ्यों की अवहेलना नहीं करती। कलात्मक गद्य वचनिका, दवावैत, वात, सिलोका, वर्णक, संस्मरण आदि रूपों में लिखा गया । अनुप्रासात्मक झंकारमयी शैली और अन्ततकात्मकता इस गद्य की अपनी विशेषता है। प्रागमों में निहित दर्शन और तत्व को जनोपयोगी बनाने की दृष्टि से प्रारम्भ में नियुक्तियां और भाष्य लिखे गये। पर ये पद्य में थे। बाद में चलकर इन्हीं पर चूर्णियां लिखी गईं। ये गद्य में थीं। नियुक्ति, भाष्य और चणि साहित्य प्राकृत अथवा प्राकृत-संस्कृत मिश्रित में ही मिलता है। आगे चलकर टीकायग आता है। ये टीकाएं आगमों पर ही नहीं लिखी गईं वरन् नियुक्तियों और भाष्यों पर भी लिखी गई। ये टीकाएं प्रारम्भ में संस्कृत में और बाद में लोक-कल्याण की भावना से सामान्यत: पुरानी हिन्दी में लिखी मिलती हैं। इनके दो रूप विशेष प्रचलित है। टब्बा और बालावबोध । टब्बा संक्षिप्त रूप है जिसमें शब्दों के अर्थ ऊपर, नीचे या पार्श्व में लिख दिये जाते हैं पर बालावबोध में व्याख्यात्मक समीक्षा के दर्शन होते हैं। यहां निहित सिद्धान्त को कथा और दृष्टान्त दे-देकर इस प्रकार समझाया जाता है कि बालक जैसा मन्द बुद्धि वाला भी उसके सार को ग्रहण कर सके। पद्य और गद्य के ये विभिन्न साहित्य रूप जैन साहित्य की विशिष्ट देन हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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