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________________ 20 जैन साहित्यकार सामान्यतः साधक और सन्त रहे हैं। साहित्य उनके लिए विशुद्ध कला की वस्तु कभी नहीं रहा, वह धार्मिक आचार की पवित्रता और साधना का एक अंग बन कर आया है। यही कारण है कि अभिव्यक्ति में सरलता, सुबोधता और सहजता का सदा आग्रह रहा है। जब अपभ्रंश से हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती आदि भाषाएं विकसित हुई तो जैन साहित्यकार अपनी बात इन जनपदीय भाषाओं में सहज भाव से कहने लगे। यह भाषागत उदारता उनकी प्रतिभा पर आवरण नहीं डालती वरन भाषाओं के ऐतिहासिक विकासक्रम को सुरक्षित रखे हुए है। जैन साहित्यकार साहित्य को कलाबाजी नहीं समझते। वे उसे अकृत्रिम रूप से हृदय को प्रभावित करने वाली प्रानन्दमयी कला के रूप में देखते हैं। जहां उन्होंने लोक भाषा का प्रयोग किया वहां भाषा को सशक्त बनाने वाले अधिकांश उपकरण भी लोक-जीवन से ही चने हैं। छन्दों में तो इतना वैविध्य है कि सभी धर्मों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों से वे सीधे खींचे चले आ रहे हैं। ढालों के रूप में, जो देशियां अपनाई गई हैं, वे इसकी प्रतीक हैं। पर इससे यह न समझा जाये कि उनका काव्य-शास्त्रीय ज्ञान अपूर्ण था या बिल्कुल ही नहीं था। ऐसे कवि भी जन-जगत् में कई हो गये हैं जो शास्त्रीय परम्परा में सर्वोच्च ठहरते हैं, आलंकारिक चमत्कारिता, शब्दक्रीड़ा और छन्दशास्त्रीय मर्यादा-पालन में जो होड़ लेते प्रतीतहोते हैं, पर यह प्रवृत्ति जैन-साहित्य की सामान्य प्रवृत्ति नहीं है। जैन साहित्य में जो नायक आये हैं, उनके दो रूप हैं-मूर्त और अमूर्त। मूर्त नायक मानव हैं, अमूर्त नायक मनोवृत्ति विशेष । मूर्त नायक साधारण मानव कम, असाधारण मानव अधिक हैं। यह असाधारणता आरोपित नहीं, अर्जित है। अपने पुरुषार्थ, शक्ति और साधना के बल पर ही ये साधारण मानव विशिष्ट श्रेणी में पहुंच गये हैं। ये पात्र सामान्यतः संस्कारवश या किसी निमित्त कारण से विरक्त हो जाते हैं और प्रव्रज्या अंगीकार कर लेते हैं। दीक्षित होने के बाद पूर्व जन्म के कर्म उदित होकर कभी उपसर्ग बनकर, कभी परीषह बनकर सामने आते हैं पर ये अपनी साधना से विचलित नहीं होते। परीक्षा के कठोर प्राघात इनकी आत्मा को और अधिक मजबूत तथा इनकी साधना को और अधिक तेजस्वी बना देते हैं। प्रतिनायक परास्त होते हैं, पर अन्त तक दुष्ट बनकर नहीं रहते। उनके जीवन में भी परिवर्तन पाता है और वे नायक के व्यक्तित्व की प्रेरक किरण का स्पर्श पाकर साधना पथ पर चल पड़ते हैं। जैन साहित्य के मूल में आदर्शवादिता है। वह संघर्ष में नहीं मंगल में विश्वास करता है। यहां नायक का अन्त दुखद मृत्यु में नहीं होता। उसे कथा के अन्त में प्राध्यात्मिक वैभव से सम्पन्न अनन्तबल, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्त सौन्दर्य का धारक बताया गया है। जैन साहित्य में यों तो सभी रस यथावसर अभिव्यंजित हुए हैं पर अंगीरस शान्त रस ही है। प्रायः प्रत्येक कथा-काव्य का अन्त शान्त रसात्मक ही है। इतना सब कुछ होते हये भी जैन साहित्य में शृंगार रस के बड़े भावपूर्ण स्थल और मार्मिक प्रसंग भी देखने को मिलते हैं। विशेषकर विप्रलंभ शृंगार के जो चित्र हैं वे बड़े मर्मस्पर्शी और हृदय को गद्गद् करने वाले हैं। मिलन के राशि-राशि चित्र वहां देखने को मिलते हैं वहां कवि 'संयमश्री के विवाह की रचना करता है। यहां जो शृंगार है वह रीतिकालीन कवियों के भाव सौंदर्य से तुलना में किसी प्रकार कम नहीं है, पर उसमें मन को सुलाने वाली मादकता नहीं वरन् आत्मा को जागृत करने वाली मनुहार है। शृंगार की यह धारा आवेगमयी बनकर, नायक को शान्त रस के समुद्र की गहराई में बहुत दूर तक पैठा देती है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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