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राजस्थान की धार्मिक पृष्ठभूमि :
राजस्थान वीर-भूमि होने के साथ-साथ धर्म-भूमि भी है। शक्ति और भक्ति का सामंजस्य इस प्रदेश की मूल सांस्कृतिक विशेषता है। यहां के वीर भक्तिभावना से प्रेरित होकर अपनी अद्भुत श का परिचय देते हये प्रात्मोत्सर्ग की ओर बढ़ते रहे, तो यहां के भक्त अपने पुरुषार्थ, साधना और सामर्थ्य के बल पर धर्म को सतेज करते रहे।
राजस्थान में उदार मानववाद के धरातल पर वैदिक, वैष्णव, शैव, शाक्त , जैन, इस्लाम, प्रादि सभी धर्म अपनी-अपनी रंगत के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में फलते-फूलते रहे। यहां की प्राकृतिक स्थिति और जलवायु ने जीवन के प्रति निस्पृहता और अनुरक्ति, कठोरता और कोमलता, संयमशीलता और सरसता का समानान्तर पाठ पढ़ाया। यह जीवन-दृष्टि यहां के धर्म, साहित्य, संगीत और कला में स्पष्ट प्रतिबिम्बित है।
प्रारम्भ से ही राजस्थान के जन-जीवन पर धर्म का व्यापक प्रभाव रहा है। प्राचीनकाल से ही यहां यज्ञ की वैदिक परम्परा विद्यमान रही है। दूसरी शताब्दी ईसा के घोसुण्डी शिलालेख में अश्वमेध यज्ञ के सम्पादन का उल्लेख मिलता है। पौराणिक धर्म के अन्तर्गत विष्ण, शिव, दुर्गा, ब्रह्मा, गणेश, सूर्य प्रादि देवी-देवताओं की आराधना के लिये चित्तौड़, ओसियां, पुष्कर, आहड़, भीनमाल आदि नगरों में समय-समय पर अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ। ध्यान देने की बात यह है कि यद्यपि यहां विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना प्रचलित रही तथापि धार्मिक सहिष्णुता की भावना को इससे कोई ठेस नहीं पहुंची। धार्मिक सहिष्णुता की यह भावमा प्रतिहार काल में हिन्दू देवताओं की मूर्तियों के निर्माण में अभिव्यक्त हुई है। बघेरा तथा बेदला से प्राप्त हरिहर की मूर्ति, हर्ष से प्राप्त तीन मुख वाले सूर्य की मूर्ति, झालावाड़ से प्राप्त सूर्यनारायण की मूर्ति, आम्बानेरी से प्राप्त अर्द्धनारीश्वर की मूर्ति और अजमेर म्यूजियम में उपलब्ध विष्णु तथा त्रिपुरुष की त्रिमूर्ति धर्म की समन्वयात्मक प्रवृत्ति की सुन्दर प्रतीक है।
राजस्थान में प्राचीन काल से शैव मत का व्यापक प्रसार रहा है। पाशुपत, कापालिक, लकुलीश आदि अनेक शैव सम्प्रदाय राजस्थान में प्रचलित रहे हैं। राजस्थान में शिव की उपासना अनेक नामों से की जाती रही है, यथा एकलिंग, समिधेश्वर, अचलेश्वर, शम्भू, भवानीपति, पिनाकिन, चन्द्रचूडामणि आदि। मेवाड़ के महाराणाओं ने श्री एकलिंगजी को ही राज्य का स्वामी माना और स्वयं उनके दीवान बनकर रहे। नाथ सम्प्रदाय का जोधपुर क्षेत्र में विशेष प्रभाव और सम्मान रहा है। राजस्थान में कई स्थलों पर उनके अखाड़े हैं।
राजस्थान में वैष्णव धर्म का प्राचीनतम उल्लेख दूसरी शताब्दी ई. पूर्व के घोसुण्डी अभिलेख में मिलता है। इस मत के अन्तर्गत कृष्णलीला से संबंधित दृश्य उत्कीर्ण मिलते हैं। कृष्ण लीला में कृष्ण चरित से संबंधित कई पाख्यान तक्षण-कला के माध्यम से भी व्यक्त हुये हैं। कृष्ण भक्ति के साथ राम भक्ति भी राजस्थान में समादृत हुई है। मेवाड़ के महाराणा तो राम से अपना वंशक्रम निर्धारित करते हैं।
राजस्थान में शक्ति के रूप में देवी की उपासना का भी प्रचलन रहा है। शक्ति की अाराधना, शौर्य, क्रोध और करुणा की भावना से जुड़ी हुई है। अतएव शक्ति की मातृदेवी, लक्ष्मी, सरस्वती, महिषासुरमर्दिनी, दुर्गा, पार्वती, अम्बिका, काली, सच्चिका आदि रूप में स्तुति की गई है। राजस्थान के कई राजवंश शक्ति को कुलदेवी के रूप में पूजते रहे हैं। बीकानेर के राज परिवार ने करणी माता को, जोधपुर राज परिवार ने नागणेचीणीको, सीसोदिया नरेश ने बाणमाता को और कछवाहों ने अन्नपूर्णा को कूलदेवी स्वीकृत किया है।